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क्रियाकोष
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जहं लों मरयादा ठानी, भांजे नहि उत्तम प्राणी । भांजे मरयादा जास, अतीचार कहावे तास ॥३७७॥ मरयादा बारै कोई, नरकों न बुलावै जोई । अरु आप नहीं बतरावै, बतराए दोष लगावै ॥३७८।। निज रूपहि सोंह सिवाई, काहू जो देइ दिखाई । यह अतीचार चौथो ही, जिनदेव वखाण्यो यो ही ॥३७९॥ मरयाद जिती जिहि धारी, तिह वारे करतें डारी । कंकरी कपडो कछु और, पाहण लकडी तिहिं ठौर ॥३८०॥ इत्यादिक वस्तु बहु नाम, वरनन कहलौं के ताम । ऐसी मति समझे कोई, देशांतर ठीक जु होई ॥३८१॥ चैत्यालय वा घरमांही, अथवा देशांतर तांही । धरिहै जिम जो मरयाद, पालै तिमि तजि परमाद ॥३८२॥ इह देश वरत तुम जाणो, दूजो गुणव्रत परमाणो । अब अनरथदंड जु तीजो, बहुविध तसु कथन सुणीजो ॥३८३॥
करते । यदि कदाचित् मर्यादाका भंग करता है तो 'आनयन' नामका अतिचार लगता है ॥३७७।। मर्यादासे बाहरके किसी पुरुषको नहीं बुलाना चाहिये और न ही मर्यादाके बाहर किसीको भेजना चाहिये। इसके विपरीत कार्य करनेसे 'प्रेष्यप्रयोग' नामका अतिचार लगता है। मर्यादाके बाहर स्थित मनुष्यसे कोई बात नहीं करना चाहिये। यदि करता है तो वह 'शब्दानुपात' नामका
अतिचार है। मर्यादासे बाहरके लोगोंको अपना रूप दिखा कर कार्य करनेमें सचेत करना यह 'रूपानुपात' नामका चौथा अतिचार है। जितनी मर्यादा रक्खी है उसके बाहर कंकड़, वस्त्र, पत्थर या लकड़ी आदि वस्तुओंको फेंकना 'पुद्गलक्षेप' नामका पाँचवाँ अतिचार है । देशव्रतके विषयमें ऐसा नहीं समझना चाहिये कि इसमें किसी अन्य देशका रहना निश्चित किया जाता है; परन्तु इसमें यह विचार किया जाता है कि मैं चैत्यालयमें, घरमें अथवा किसी अन्य स्थानमें इतने समय तक रहूँगा। जहाँ रहनेकी जो भी मर्यादा की है उसका प्रमाद छोड़कर पालन करना चाहिये। इसे देशव्रत जानना चाहिये। यह देशव्रत दूसरा गुणव्रत है। अब तीसरा गुणव्रत जो 'अनर्थदण्ड' है उसका नाना प्रकारका कथन सुनिये ॥३७८-३८३॥
अनर्थदण्ड पाँच प्रकारका होता है-पहला पापोपदेश, दूसरा हिंसादान, तीसरा अपध्यान, चौथा दुःश्रुति और पाँचवाँ प्रमादचर्या । अपने घरके कार्य बिना, अन्य दूसरोंके लिये पापकार्योंका
१ कर ही जो कोई इशारा, ये अतीचार निरधारा । क.
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