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क्रियाकोष
तनु निज अमृत अंगूठा थकी, तीस पांच दिन पूरण रेवकी । उचत कोस दुय दुय दिन जाय, करै अहार निहार न थाय ॥५६६॥ कल्पवृक्ष दश विधि के जास, नाना विधि दे भोगविलास । दुय पल्य आयु मुँजि सुर होय, मध्य पात्र फल जाणो लोय ॥५६७॥ अरु यह कथन महा सुखकार, ग्यारा प्रतिमामें निरधार । आज कहिहौं प्रथम सुजाण, पुनरुक्तीको दोष वखाण ॥५६८॥
दोहा मध्य पात्र आहार फल, कह्यौ यथावत् सार । अब जघन्य पातर त्रिविधि, सुणहु दान फल कार ॥५६९॥ क्षायिक क्षय उपशम तृतिय, उपशम तीन प्रकार । इनहि गृही आहार दे, यथायोग्य सुखकार ॥५७०॥
चौपाई जघन्य पात्रके दाता जान, जघन्य युगलिया होत प्रमाण । छींक जंभाईतें पितु माय, मरें आप पूरण तनु पाय ॥५७१॥ दिन गुणचासै कोष प्रमाण, आयु पल्य इक भुगते जाणि । एक दिवस बीतें आहार, लेई बहेडा सम न निहार ॥५७२॥
पैंतीस दिनमें पूर्ण युवा हो जाते हैं। उनका शरीर दो कोश ऊँचा होता है। दो दिन बीत जाने पर वे आँवलाके बराबर आहार करते हैं। उनके निहार नहीं होता। दश प्रकारके कल्पवृक्षोंसे उन्हें नाना प्रकारके भोग विलास प्राप्त होते हैं। दो पल्यकी आयु भोग कर वे देव होते हैं । इस प्रकार यह मध्यम पात्रके दानका फल जानना चाहिये । महासुखको करनेवाला यह कथन आगे चल कर ग्यारह प्रतिमाओंके वर्णनमें करेंगे। यहाँ करनेसे आगेका कथन पुनरुक्त हो जाता है और यह पुनरुक्ति दोष कहा गया है ॥५६५-५६८।।
इस प्रकार मध्यम पात्रको आहार देनेका यथार्थ फल कहा। अब जघन्य पात्रके दानकी विधि और फलको सुनो ॥५६९॥ जघन्य पात्र, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा तीन प्रकारका होता है। गृहस्थ इन्हें यथायोग्य सुखकारक आहार देता है ॥५७०॥ जघन्य पात्रको दान देने वाला मनुष्य, जघन्य भोगभूमिमें युगलिया होता है। युगलियाके होते ही माता पिता छींक और जम्हाई लेकर मृत्युको प्राप्त हो जाते हैं। ऊंचास दिनमें उनका शरीर पूर्ण हो जाता है। शरीरकी ऊँचाई एक कोश प्रमाण और आयु एक पल्यकी होती है। एक दिन बीत जाने पर वे बहेड़ाके बराबर आहार लेते हैं। उनके निहार नहीं
१ तणी स० २ गणी स० ३ परम स० न० ४ यथा विस्तार न०
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