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श्री कवि किशनसिंह विरचित
सरप हि जो दूध पिलावै, तापै तो विषको पावै । सो हरै प्राण तत्काल, परगट जाणो इह चाल || ५८७॥ जिम दान अपात्र हि देई, इह भवतैं नरक लहेई । फिर भवमें पंच प्रकार, परावर्तन करै अपार ॥ ५८८ ॥ लखि एक जाति गुण न्यारे, तांबो दुइ भांति करारे । इक तो गोलो बणवावै, दूजो पातर घडवावै ॥ ५८९ ॥ गोलो डाले जलमांही, ततकाल रसातल जाही । पातर जल तरहै पारै, औरनको पार उतारै ।। ५९० ।।
तिम भोजन तो इकसा ही, निपजै गृहस्थ घरमांही । दीजै अपात्रकौ जेह, तातैं नरकादि पडेह ॥५९१॥
वह उत्तम पात्रह दीजै, सरधा रुचि भक्ति करीजै । इह भवतैं ह्वै दिविवासी, अनुक्रमतैं शिवगति पासी ॥ ५९२ ॥ इक वाय नीर चलवाई, नींव रु सांठा सिंचवाई | सो नींव कटुकता थाई, सांठा रस मधुर गहाई || ५९३॥
इसके विपरीत यदि कोई सापको दूध पिलाता है तो उससे विष ही प्राप्त होता है और ऐसा विष जो तत्काल प्राणोंका हरण करता है यह बात लोकमें प्रगट है । इसी प्रकार जो अपात्रको दान देता है वह इस भवसे नरकको प्राप्त होता है । पश्चात् संसारमें पाँच प्रकारके परिवर्तनोंको पूरा करता है जिनका अन्त नहीं आता ।। ५८७-५८८ ।।
इस बातको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं- जैसे तांबा एक जातिकी धातु है उसके दो रूप बनाओ - एक गोला बनाओ और दूसरा पीटकर पत्र बनाओ । उनमेंसे गोलेको यदि पानीमें डाला जावे तो वह तत्काल नीचे चला जाता है और पत्र यदि नावमें लगा दिया जाता है तो वह पानीके ऊपर स्वयं तैरता है तथा दूसरोंको भी पार उतार देता है । इसी प्रकार भोजन तो गृहस्थके घर एक समान ही बनता है परन्तु वह भोजन यदि अपात्रके लिये दिया जाता है तो उसका फल नरकादि गतिमें पड़ना होता है और उत्तम पात्रके लिये श्रद्धा, रुचि और भक्तिसे दिया जाता है तो उसके फलस्वरूप दाता इस भवसे देव होता है और अनुक्रमसे मुक्त होता है ।।५८९-५९२।।
एक दृष्टान्त यह भी है कि जिस प्रकार कोई बगीचेमें पानी दिलवाता है और उससे नीम तथा गन्नेकी सिंचाई करवाता है । वह पानी यदि नीममें जाता है तो कडुवा हो जाता है और गन्नेमें जाता है तो मीठा हो जाता है ॥ ५९३ ॥
१ नरकादिक देह स० २ वार स०
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