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क्रियाकोष
तामैं दोष लगै अधिकाय, मध्यस्थ भाव रहै तिहि ठाय । पातरि नृत्य अखारे मांहि, नटवा नटि जिहि नृत्य करांहि ॥६३२॥ वादीगर विद्या जे वीर, मुकती राखै जावै धीर । परवनिताको तो परिहार, निज तियमें जिम कर निरधार ॥६३३॥ पांचौं परवीमें तो सोंह, अवर दिवस जैसी चित गोह । तजै सरवथा तो परिहरै, राखै अंगीकार सु करै ॥६३४॥ सेवत विषै जीवकी घात, उपजै पाप महा उतपात । जिह जागै राखै मरजाद, सो निरवाहै तजि परमाद ॥६३५॥ स्नान करण राखै तो करै, सोंह थकी कबहूं नहि टरै । आभूषण पहिरै हैं जिते, घरमें और धरे हैं तिते ॥६३६॥ पहरणकी इच्छा जे होई, सो पहरै सिवाय नहि कोई । भूषण अन्यतणै की रीति, राखै मांगि पहरि करि प्रीति ॥६३७॥ कपडे अगले पहरै होय, वे ही मुखौं राखै सोय । अथवा नये ऊजरे होइ, राखै सो पहरै मन दोइ॥६३८॥
लगता है इसलिये इस प्रसंग पर मध्यस्थ भाव रखना चाहिये । नृत्यके अखाड़ेमें जहाँ नट और नटिनी नृत्य करती है तथा वादीगर लोग अपनी विद्याका कौशल दिखाते हैं वहाँ जानेकी यदि छूट रक्खी है तो जावे । कामसेवनके विषयमें यह ध्यान रखना चाहिये कि परस्त्रीका तो त्याग है ही, अतः निज स्त्रीके विषयमें विचार करना चाहिये । पाँचों पर्वोके दिन तो कामसेवनका सर्वथा त्याग
करना चाहिये. अन्य दिनोंमें जैसा मन हो वैसा करे। यदि सर्वथा त्याग किया है तो त्याग रक्खे
और सेवनका विचार रक्खा है तो स्वीकार करे ॥६३१-६३४॥
स्त्रीसेवनमें जीवोंका घात होता है जिससे महादुःखकारी पापका बंध होता है। जिस स्थान पर स्त्रीसेवनकी मर्यादा ली है उसका प्रमाद छोड़कर निर्वाह करना चाहिये ॥६३५॥ ___स्नान करनेका यदि नियम रक्खा है तो उस नियमसे कभी हटना नहीं चाहिये। जो आभूषण शरीर पर पहिने हैं अथवा घरमें रक्खे हैं उनमें जितनेका नियम लिया है उतने ही पहिने, अधिक नहीं। दूसरोंके आभूषणोंके विषयमें प्रीतिके अनुसार जैसा व्यवहार चलता हो तदनुसार पहिनना चाहिये ॥६३६-६३७।।
कपड़ोंके विषयमें ऐसा विचार है कि जो पहिने हुए हैं उन्हींका नियम रक्खें अथवा उजले नये वस्त्र पहिननेका मन हो तो वैसा नियम रख ले ॥६३८॥
श्वसुर आदिक संबंधीजन, मित्रजन तथा राजा आदिके द्वारा भेंटमें दिये हुए वस्त्रोंके
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