________________
क्रियाकोष
जैसी मति अब का समुझ, कियो ग्रंथ अनुसार । किसनसिंघ कहि अब सुणो, कथन विधी परकार ॥६१८॥
सत्रह नियमका वर्णन
दोहा जे श्रावक आचार जुत, निति प्रति पालैं नेम । मरयादा दस सात तसु, मन वच क्रम धरि प्रेम ॥६१९॥
उक्तं च-श्लोक भोजने षड्रसे पाने कुंकुमादि विलेपने । पुष्पताम्बूलगीतेषु नृत्यादौ ब्रह्मचर्यके ॥६२०॥ स्नानभूषणवस्त्रादौ वाहने शयनासने । सचित्तवस्तुसंख्यादौ प्रमाणं भज प्रत्यहम् ॥६२१॥
चौपाई भोजनकी मरयादा गहै, राखै जेती बारह लहै । परके घरको जीमण जोई, प्रात समै में राख्यो होई॥६२२॥ अन्न अवर मीठादिक वस्तु, भोजन माहे जाणि समस्तु ।
असन चवीणी अर पकवान, गिणती माफिक खाय सुजाण ॥६२३॥ और चार शिक्षाव्रत ये श्रावकके पूर्ण बारह व्रत कहलाते हैं ॥६१७॥ ग्रन्थकर्ता श्री किशनसिंह कहते हैं कि हमने अपनी वर्तमान बुद्धि तथा जिनागमके अनुसार इनका कथन किया है। अब श्रावकको क्या कैसा करना चाहिये? इस विधिका वर्णन करते हैं सो सुनो ॥६१८॥ .
श्रावकके सत्रह नियमोंका वर्णन जो मनुष्य, नित्यप्रति नियमपूर्वक श्रावकाचारसे सहित हैं वे प्रेमपूर्वक मन वचन कायसे सत्रह नियमोंको धारण करते हैं ॥६१९॥ जैसा कि कहा गया है-भोजन, छह रस, पानी, कुंकुमादिका विलेपन, पुष्प, पान, गीत, नृत्यादिक, ब्रह्मचर्य, स्नान, आभूषण, वस्त्रादि, वाहन, शय्या, आसन, सचित्त पदार्थ तथा भोगोपभोगकी अन्य वस्तुओंकी संख्या आदिका प्रतिदिन प्रमाण करना चाहिये ॥६२०-६२१॥ “आज मैं इतनी बार भोजन करूँगा" इस प्रकार भोजनकी मर्यादा करनी चाहिये। जितनी बार भोजन करनेका नियम लिया है उतनी बार ही भोजन करें। यदि दूसरेके घर जीमनेके लिये जाना है तो प्रातःकालके समय जानेका नियम करना चाहिये । दाल भात आदि अन्न तथा मोदक आदि समस्त पदार्थ भोजनकी वस्तुएँ हैं। इसलिये भोजन, चबैनी, तथा पक्वान्न आदिकी गिनती रख कर उसीके अनुसार खाना चाहिये। यह भोजन विषयक नियम है ॥६२२-६२३॥ घी, दूध, दही, मीठा, तेल और नमक ये भोजनके छह रस हैं। इनमें जितने रसोंके ग्रहण और परित्यागका नियम लिया है उसीके अनुसार ग्रहण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org