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क्रियाकोष
मुनि ग्यानवान जो थाय, निरदोष आहार गहाय । द्रव्य श्रावककौं जांनि, ताकौं नहि दूषन मांनि ॥ ५५४॥ मुनि असन नियम नहि एह, दृगव्रत धारीहिकै लेह । किरिया सुध जाकौं होई, तहँ लेई आहार सक खोई ।। ५५५ । दरसनजुत श्रावक होई, द्रव्य मुनि जो आवै कोई । जानें विनु देय आहार, ताकौं नहि दोष लगार || ५५६ || श्रावक जांणै जो तेह, मिथ्यादृष्टी मुनि एह । "ताको न भूल पडिगाही, समकित गुण तामैं नाही ॥ ५५७ ॥ निज दरसनकौं भवि प्राणी, दूषण न लगावै जाणी । जिनकै निति इह व्यापार, चालै निज बुद्धि विचार ॥ ५५८ ॥ कोऊ बूझै फिरि ऐसें, विनु ग्यान सरावग कैसें । मुनि केम परीक्षा जानी, यम हिरदै या न समानी ॥ ५५९ ॥ उत्तर सुणि अब अति ठीक, यामैं कछु नाहि अलीक । प्रथमहि श्रावक गुण पालै, पातर लखि लै तत्कालै ॥५६०॥
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आते हैं तब वे श्रावककी क्रियाका मिलान कर लेते हैं अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवकी चालढाल मुनिराज अपने ज्ञानसे समझ लेते हैं । यदि श्रावककी प्रवृत्ति ठीक दीखती है तो उसके घर मुनिराज निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं । जो बाह्यमें श्रावककी क्रियाका पालन करता है उसके यहाँ आहार लेनेमें दूषण नहीं है । मुनिके आहार विषयक ऐसा कोई नियम नहीं है कि वे सम्यग्दृष्टि और व्रतधारीके घर ही आहार लेवें । जिसकी क्रिया शुद्ध होती है उसके यहाँ निःशङ्क होकर आहार लेते हैं ।। ५५३-५५५॥
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इसी प्रकार कोई सम्यग्दृष्टि श्रावक है उसके यहाँ यदि कोई द्रव्यलिंगी मुनि आते हैं तो जाने बिना वह उन्हें आहार दे सकता है इसमें कोई दोष नहीं लगता है । यदि श्रावकको यह विदित है कि अमुक मुनि मिथ्यादृष्टि है तो उसे प्रारंभमें ही न पडिगाहे, क्योंकि उसमें सम्यक्त्वरूपी गुण नहीं है । भव्य प्राणीको चाहिये कि वह जानकर अपने सम्यग्दर्शनको दूषण नहीं लगावे । जिन श्रावकोंके यहाँ आहारदानका कार्य निरंतर चलता है वे अपनी बुद्धिसे विचार कर चलते हैं ।। ५५६-५५८ ।। यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करता है कि जो श्रावक ज्ञानहीन हैं वे मुनिकी परीक्षा किस प्रकार करेंगे ? कैसे जानेंगे कि इनके हृदयमें संयम है या नहीं ? ग्रन्थकार कहते हैं कि इसका यथार्थ उत्तर सुनो, इसमें कुछ मिथ्या नहीं है । प्रथम तो अपने गुणोंका पालन करने वाला श्रावक, पात्रको देख कर तत्काल समझ लेता है कि यह मुनि योग्य है । १ ताकौ भूल न पडिगाही स०
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