________________
श्री कवि किशनसिंह विरचित
दोहा उत्तम पात्र सु तीन विधि, तिनहि भेद नव जान । पुनि कुपात्र तिहुं भेदको, वरनन कहूं वखान ॥५१६॥
__छन्द चाल गुन मूल अठाइस धार, 'चारित तेरा परकार । मुनिवर पदकौ प्रतिपाल, तप करै कठिन दर हाल ॥५१७॥ २समकित बिन जीवन जाकौ, मिथ्यात उदै है ताकौ । ऐसो कुपात्र तिनमांही, उत्कृष्ट कुपात्र कहांही ॥५१८॥ व्रतधर श्रावक है जेह, मध्यम कुपात्र भनि तेह । गुरु देव शास्त्र मनि आनै, आपा पर कबहुं न जानै ॥५१९॥ वाहिज कहै मेरे ठीक, अंतरगति सदा अलीक । ते जघन कुपात्र हि जानो, सरधानी मनमें आनो ॥५२०॥
दोहा कह्यो कुपात्र विशेष इह, रेजिनवायक परमाण । अब अपात्रके भेद तिहुं, सो सुणि लेहु सुजाण ॥५२१॥
छन्द चाल अंतर समकित नहि जाकै, बाहिर मुनिक्रिया न ताकै ।
विपरीत रूपके धारी, जिह्वादिक लंपट भारी ॥५२२॥ जघन्य पात्र हैं ॥५१५॥ इस प्रकार तीन उत्तम पात्रोंके नौ भेद जानने चाहिये। अब आगे कुपात्रोंका वर्णन करते हैं ॥५१६॥
जो अट्ठाईस मूलगुणोंको धारण करते हुए तेरह प्रकारका चारित्र रखते हैं, मुनिपदका पालन करते हैं और कठिन तपश्चर्या करते हैं परन्तु अंतरंगमें मिथ्यात्वका उदय रहनेसे जिनका जीवन सम्यग्दर्शनसे रहित है वे उत्कृष्ट कुपात्र कहलाते हैं ॥५१७-५१८॥ जो बाह्यमें श्रावकके व्रत धारण करते हैं परन्तु अंतरंगमें सम्यग्दर्शनसे रहित हैं वे मध्यम कुपात्र हैं; और जो देव, शास्त्र, गुरुकी तो श्रद्धा करते हैं परन्तु स्व-परका कुछ भेद नहीं जानते, बाह्यमें तो कहते हैं कि मेरे सब ठीक है परन्तु अन्तर्गति सदा मिथ्या रहती है वे जघन्य कुपात्र कहलाते हैं ऐसी श्रद्धा मनमें करो ॥५१९-५२०॥ इस प्रकार यह जिनागमके अनुसार कुपात्रोंका विशेष वर्णन किया। अब अपात्रोंके भेद कहते हैं सो सुनो ॥५२१॥
जिनके अंतरंगमें सम्यक्त्व नहीं है, बहिरंगमें मुनिकी क्रिया नहीं है, विपरीत रूपके जो धारी हैं तथा जिह्वादिक इन्द्रियोंके भारी लंपटी हैं वे उत्कृष्ट अपात्र हैं। अतिशय बुद्धिमान लोग १ वनवासी है तप चारा स० २ समकित शिवबीज न जाके, मिथ्यात उदे हैं ताके न० स०३ जिनवरवचन प्रमाण स०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org