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क्रियाकोष
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सोरठा दान थकी फल होय, जो उत्कृष्ट सुपात्रकौं । सो सुणियो भवि लोय, अति सुखकारी है सदा ॥५३८॥
सवैया तीर्थङ्कर देवनिकौ प्रथम आहार देय,
वह दानपति तदभव मोक्ष जाय है । पीछे दान देनहार दृगकौं धरैया सार,
श्रावक सुव्रत धार ऐसो नर थाय है । जो पै मोक्ष जाय तो तो मनै न कहाया कहूं,
निश्चय हूं नाहि देवलोककौं सिधाय है । पायकैं अनेक रिद्धि नर सुरकी समृद्धि,
निकट सुभव्य निरवाण पद पाय है॥५३९॥ उतकिष्ट पात्रनिमें उतकिष्ट तीर्थङ्कर,
तिनि दानको तो फल प्रथम वखांनियो । अब उतकिष्ट त्रिकमांहि रहै मध्य फुनि,
जघन मुनीस दान फल ऐसो जांनियो । दानी दृग व्रत धारी तिनही असन दिये, ___ कलप वसैया सुर है है सही मांनियो । अवर विशेष कछु कहनो जरूर इहां,
तेउ सुनो भव्य सुखदाई मनि आंनियो ॥५४०॥ . अब उत्कृष्ट सुपात्रको दान देनेका जो फल होता है उसे हे भव्यजनों ! सुनो। वह फल सदा सुखकारी होता है ॥५३८॥ जो तीर्थङ्करको प्रथम आहार देता है वह दानपति कहलाता है और उसी भवसे मोक्ष जाता है। प्रथम आहारके बाद जो द्वितीयादिक आहार देते हैं वे सम्यग्दृष्टि श्रावकके व्रत धारण कर उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं। यदि कोई मोक्ष जाता है तो उसका निषेध नहीं है। परन्तु प्रथम आहार देनेवालेके समान निश्चय-नियम नहीं है। इतना नियम अवश्य है कि वह देव गतिको प्राप्त होता है। वह निकटभव्य मनुष्य और देव गतिकी अनेक ऋद्धियोंको तथा समृद्धियोंको प्राप्त कर निर्वाणपदको प्राप्त होता है ॥५३९॥ तीर्थङ्कर, उत्कृष्ट पात्रोंमें उत्कृष्ट पात्र हैं अतः उनके दानका फल पहले कहा है। अब उत्कृष्ट पात्रोंके तीन भेदोंमें जो मध्यम और जघन्य पात्र हैं उनके दानका फल ऐसा जानना चाहिये। यदि दान देने वाला सम्यग्दृष्टि है तो वह कल्पवासी देव होता है इसमें संशय नहीं मानना चाहिये। इस प्रकरणमें कुछ विशेष कहना आवश्यक है सो हे भव्यजनों ! मनमें सुख देने वाले उस विशेष कथनको सुनो ॥५४०॥
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