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क्रियाकोष
सामायिक शिक्षाव्रतके अतिचार
छन्द चाल
मन वच क्रमके ए जोग, परमादी होय प्रयोग | परिणाम दुष्टता भारी, राखे नहिं ठीक लगारी ॥ ४३६ ॥ सामायिक पाठ करंत, बतरावै परसों मंत । बोलै फुनि वारंवार, जानों दूजौ अतिचार ॥४३७॥ आसणको करै चलाचल, तनकूं जु हलावे पल पल । फेरै मुख चहुंदिसि भारी, तिजहू अतिचार विचारी ||४३८|| * सामायिक करत अनादर, मनमें न उछाह धरै पर ।
विन लगन भाव हू खोट, किनि सिर पर दीजिय मोट || ४३९॥* सामायिक पाठ करंतो, चितमांहे एम धरंतो । मै पाठ पढ्यौ अक नांही, फुनि फुनि इम वीसरि जांही ॥४४०॥ ए अतीचार पण भाखै, जिनवाणीमें जिन आखै । जे भवि सामायिक धारी, प्रथम हि ए दोष निवारी ||४४१||
आगे सामायिक शिक्षाव्रतके अतिचार कहते हैं
मन वचन काय ये तीन योग हैं। प्रमादी होकर इनका प्रयोग करना सो योग दुष्प्रणिधान नामके तीन अतिचार हैं। पहला अतिचार मनोयोग दुष्प्रणिधान है जिसका भाव यह है कि मनमें दुष्टताका भाव रखना और मनका ठीक उपयोग नहीं करना, किसीका अहित चिंतन करना आदि । दूसरा अतिचार वाग्योग दुष्प्रणिधान है । इसका अर्थ यह है कि सामायिक पाठ करते समय दूसरोंसे वार्तालाप करना तथा बार बार बीचमें बोलना । तीसरा अतिचार है काययोग दुष्प्रणिधान, जिसका अर्थ है आसनको चलायमान करना, शरीरको क्षण क्षणमें हिलाना और चारों दिशाओंकी ओर मुख घुमाना अर्थात् सामायिक करते समय इधर उधर देखना ||४३६४३८|| चौथा अतिचार अनादर है । इसका अर्थ है अनादरके साथ सामायिक करना, मनमें कोई उत्साह नहीं रखना क्योंकि आंतरिक उत्साहके बिना खोटे भाव होने लगते हैं और ऐसा लगने लगता हैं मानों किसीने सिर पर बड़ा भार रख दिया हो ॥ ४३९ || पाँचवाँ अतिचार है स्मृत्यनुपस्थान। इसका अर्थ है - सामायिक पाठ करते समय मनमें ऐसा भाव आना कि मैंने यह पाठ पढ़ा या नहीं; पाठ पढ़ते समय उसे बार बार भूल जाना ॥ ४४० ॥ ग्रंथकार कहते हैं कि जिनवाणीमें जिनेन्द्र भगवानने जैसा कहा है तदनुसार सामायिक शिक्षाव्रतके ये पाँच अतिचार कहे हैं । जो भव्यजीव सामायिक शिक्षाव्रतके धारी हैं उन्हें इन अतिचारोंका निवारण पहले ही
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१ विन लगन भाव जो होत, जिम सिर पर लादे बोज क०
* क्रम ठीक करनेके लिये ४३८ और ४३९ संख्याके पद्योंमें क्रम व्यत्यय किया गया है।
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