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क्रियाकोष
प्रोषधोपवासके अतिचार
छन्द चाल
पोसो धरि जिहि भूपरि, देखै नहि ताहि नजर करि । इह अतीचार इक जाणी, दूजेको सुनो वखाणी ||४६५॥ जेती पोसहकी ठाम, प्रतिलेखै नांही ताम । दूषण लागै है जाकौ, सुणि अतीचार तीजाकौ ॥ ४६६ ॥ पोसो धरणेकी वार, मोचै न मल मूत्र विकार । मरज्यादा विनसौ डारै, संथारो जो विसतारै ||४६७॥ बैठे उठै तजि ठाम, तीजै दूषणको पोसो धरता मनमांही, उच्छवको धारे नांही ॥ ४६८॥
पाम ।
बिनु आदर ही सों ठानै, मरज्यादा मनमें आनै । चौथो इह है अतिचार, अब पंचम सुणि निरधार ||४६९ | पढि है जो पाठ प्रमाण, ठीक न ताको कछु जाण । इह पाठ पढ्यो इक नांही, अब पढिहों एम कहांही ॥४७० ॥
ए अतीचार भणि पंच, भाषै जिन आगम संच । पोसो जो भविजन धरिहै, इनको टालो सो करिहै ॥ ४७१॥
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प्रोषधोपवास व्रतके अतिचार
जिस भूमि पर प्रोषधका नियम धारण करना है उस भूमिको अच्छी तरह नहीं देखना, यह पहला अतिचार है । अब द्वितीय अतिचारका व्याख्यान सुनो । प्रोषधका जो स्थान है उसका कोमल वस्त्रादिसे प्रतिलेखन - परिमार्जन नहीं करना यह दूसरा अतिचार है । प्रतिलेखन न करनेसे प्रमादजन्य दोष लगता है । अब तृतीय अतिचार सुनो-प्रोषध धारण करनेके समय मलमूत्रादि विकारको नहीं छोड़ना अर्थात् इन क्रियाओंके करनेमें प्रमादवश लगनेवाले दोषोंको नहीं छोड़ना, जो सांथरा आदि बिछावे उसे मर्यादापूर्वक अर्थात् देखभाल कर नहीं बिछाना तथा अपना स्थान छोड़ इधर उधर उठना बैठना यह तीसरा अतिचार है । प्रोषध रखते समय मनमें उत्साह नहीं होना, आदरके बिना ही मनमें मर्यादा लेना यह चतुर्थ अतिचार है । अब पंचम अतिचारका वर्णन सुनो-जो पाठ पढ़ता है उसका ठीक ठीक स्मरण नहीं रखना, यह पाठ मैंने पढ़ा है या नहीं पढ़ा है, अब पढूँगा इस प्रकार स्मृतिका ठीक नहीं होना यह पाँचवाँ अतिचार है ।। ४६५ - ४७०।। जिनागमके अनुसार ये पाँच अतिचार कहे हैं । जो भव्य जीव प्रोषधव्रत धारण करते हैं वे जब इनका निराकरण अवश्य करते हैं, तभी यथार्थ फल प्राप्त करते हैं
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