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क्रियाकोष जिम मरयादाकी आखडी, तहलौं जाय कामवसि पडी । घरि बैठा निति धारै ठीक, पाले कबहुं न चले 'अधीक ॥३६५॥
दोहा २दिगव्रतको पालै थकी, उपजै पुन्य अपार । सुरगादिक २फल भोगवै, यामें फेर न सार ॥३६६॥ मरयादा लीए बिना, फल उतकिष्ट न होय । हमैं पलै नहिं इम कहे, वहै विकलमति जोय ॥३६७।। दिग्वत गुणव्रतके पाँच अतिचार
__ छन्द चाल मंदिर निज परकी आड, चढियो फुनि कोई पहाड । ऊरध संख्या सो कहिये, टालतें दोषहि गहिये ॥३६८॥ तहखाना कूप रु खाय, गिरि गुफा मांहि जो जाय । इह अधोभूमि मरयाद, टालै दूषण परमाद ॥३६९॥ दिसि विदिसि सौंह जै लीनी, तिरछौ चलवे मति दीनी ।
सो तिरजिग गमन कहाई, अतिचार तृतिय इह थायी ॥३७०॥ निज खेत भूमि जो थाय, सीमातें अधिक बधाय ।
सो क्षेत्र वृद्धि तुम जाणो, चौथो अतिचार वखाणो ॥३७॥ तक जाता है जहाँ तक की मर्यादा करता है। अपने घर बैठकर ही कार्य सिद्ध करता है, मर्यादासे अधिक कभी नहीं चलता है ॥३६५॥ दिग्वतका पालन करनेसे अपार पुण्यकी प्राप्ति होती है। इसका पालन करनेवाला मनुष्य स्वर्गादिकका सुख भोगता है इसमें कुछ भी अन्तर नहीं है। मर्यादाके बिना उत्कृष्ट फलकी प्राप्ति नहीं होती। 'हमसे मर्यादाका पालन नहीं होता' ऐसा जो कहते हैं वे बुद्धिहीन हैं-अज्ञानी हैं ॥३६६-३६७॥ आगे दिग्वतके पाँच अतिचार कहते हैं :
अपने भवनकी ऊपरी सीमा अथवा पहाड़ पर चढ़ना यह ऊर्ध्व संख्या कहलाती है। इसका उल्लंघन करनेसे दोष लगता है। यह ऊर्ध्वव्यतिक्रम नामका अतिचार है ॥३६८॥ तहखाना, कूप, खदान तथा पर्वतकी गुफा आदि नीचले स्थानोंमें जानेकी जो मर्यादा की है, उसका प्रमादवश भंग करनेसे अनेक दोष लगते हैं। यह अधोव्यतिक्रम नामका अतिचार है॥३६९।। दिशा और विदिशामें जानेका जो नियम लिया है वह तिर्यग्गमन कहलाता है। इसका उल्लंघन करना तिर्यग्व्यतिक्रम नामका तृतीय अतिचार है ॥३७०।। अपने आने-जानेके क्षेत्रकी जो सीमा निश्चित की थी उसमें वृद्धि कर लेना यह क्षेत्र वृद्धि नामका चतुर्थ अतिचार है ।।३७१॥ जिस वस्तुका पहले
१ अलीक ग० २ या व्रतको पाले थकी स० न० ३ सुख स० न० ४ वाय न०
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