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श्री कवि किशनसिंह विरचित
मरहटा छन्द
जो परिग्रह राखे दोष न भाखे चित्त अभिलाखे हीन, विकलप मुकुलावै विषय बढावै आढ न पावै दीन । बहु पाप उपावै जो मन भावे आवै बात कहीन, मूर्च्छाको धारी हीणाचारी नरक लहै सुख छीन ॥ ३६९ ॥
भुजंगप्रयात
कह्यो मूर्च्छना दोष भारी
जानै
लहै सुभ्र संसै न तजै सर्वथा मोक्ष यह जान भव्यान याको
सौख्यं
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अपारी,
लगारी ।
लहंती,
गहंती ॥३६२॥
दिग्व्रत नामक प्रथम गुणव्रत कथन
चौपाई
चार दिशा विदिशा फुनि चार, ऊर्ध्व अधो दुहुं मिलि दस धार । दिगव्रत पालन नर परवीन, मरयादा लंघै न कदीन || ३६३|| जिते कोसलों फिरियो चहै, दिशा विदिशाकी संख्या है । अधिक लोभको कारिज बणै, व्रतधर मरयादा नहि हणै || ३६४ ||
इसके विपरीत जो परिग्रह रखते हैं, उसमें दोष नहीं मानते, दीन हीन होकर चित्तमें उसीकी अभिलाषा रखते हैं, नाना प्रकारके विकल्प उत्पन्न करते हैं, विषयसामग्रीको बढाते रहते हैं, उसका कभी अन्त नहीं करते, जो मनमें रुचता है वैसा अधिक पाप करते हैं और मूर्च्छाममता भावको धारणकर हीन आचरण करते हैं वे नरकका दुःख प्राप्त करते हैं || ३६१।। मूर्च्छाको बहुत भारी दोष कहा गया है । इसके धारी जीव श्वभ्र - नरकको प्राप्त होते हैं इसमें संशय नहीं है । इसके विपरीत जो इसका त्याग करते हैं वे मोक्षसुखको प्राप्त होते हैं । यही जानकर भव्यजीव इस व्रतको धारण करते हैं ॥३६२॥
आगे दिखत नामक प्रथम गुणव्रतका कथन करते हैं
पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण ये चार दिशाएँ, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य ये चार विदिशाएँ और ऊपर नीचे मिला कर दश दिशाएँ होती हैं । दिव्रतका पालन करनेमें निपुण मनुष्य इनकी मर्यादाका कभी उल्लंघन नहीं करता है || ३६३|| दिशा और विदिशामें जितने कोश तक भ्रमण करनेकी इच्छा है उतनी मर्यादा कर ले । यदि कदाचित् अधिक लोभका कारण बनता है तो भी व्रतधारी मनुष्य मर्यादाका घात नहीं करता है || ३६४ || कार्य पड़ने पर वहीं
१ मति स०
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