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श्री कवि किशनसिंह विरचित
मरजादा उलंघि जु खाहीं, मदिरा दूषण शक नाहीं । निज उदर भरणको जेहा, बेचैं दधि तक्र जो तेहा ॥१३८॥ वे पाप महा उपजाहीं, यामें कछु संशय नाहीं । तिनको जु तक्र दधि लेई, 'खावें मति मंद धरेई ॥१३९॥ अर करय रसोई जातें, भाजन मध्यम है तातें । मरयादा हीण जो खावें, दूषणको पार न लावें ॥१४०॥ इह दही तक्र विधि सारी, सुनिए भवि जो व्रत धारी । किरिया अरु जो व्रत राखे, दधि तक्र न परको चाखें ॥१४१॥ अब जांवणकी विधि सारी, "सुनिये भवि चित्त अवधारी । जब दूध दुहाय जु लावे, तबही तिहि अगनि चढावे ॥१४२॥ उबटाय उतार जो लीजै, रुपया तब गरम करीजै । डारै पयमांही जेहा, जमिहै दधि नहि संदेहा ॥१४३॥ बांधे कपडाके मांही, जब नीर न बूंद रहाही । तिहिकी दे बडी सुकाई, राखै सो जतन कराई ॥१४४॥ जलमांहि घोल सो लीजै, पयमांही जांवण दीजै । मरयादा भाषी जेहा, इह जांवणकू लखि लेहा ॥१४५॥
इति गोरस मर्यादा संपूर्ण । लगता है इसमें संशय नहीं है। कितने ही लोग उदरपूर्ति-आजीविकाके लिये दही और छांछको बेचते हैं वे महापापका उपार्जन करते हैं इसमें संशय नहीं है। जो अज्ञानी जन उन बेचनेवालोंसे छांछ और दही लेकर खाते हैं तथा उससे रसोई बनाते हैं उनके बर्तन भी खराब हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जो मर्यादा रहित दही और छांछ खाते हैं उनके दोषोंका पार नहीं है ॥१३५१४०॥ हे व्रतधारी भव्यजनों ! छांछ और दहीकी इस संपूर्ण विधिको सुनकर उसका निश्चय करो। जो क्रिया और व्रतका पालन करते हैं वे दूसरेका छांछ और दही नहीं खाते हैं ॥१४१॥
हे भव्यजीवों ! अब जामनकी सब विधि सुन कर हृदयमें निश्चय करो। जब दूध दुहाकर घर लावे उसे उसी समय (छानकर) अग्नि पर चढ़ा देना चाहिये । पश्चात् ओंटा कर दूधको नीचे उतार ले और उसमें चांदीका रुपया गर्म कर डाल दे। ऐसा करनेसे दही जम जाता है इसमें संदेह नहीं है ॥१४२-१४३।। अथवा कपड़ेमें दहीकी पोटली बाँधे । जब उसमें पानीकी एक भी बूंद न रहे तब उसकी बड़ी दे कर सुखा ले। उन बड़ियोंको यत्नपूर्वक रखे। जब दही जमाना हो तब उस बड़ीको पानीमें घोल कर दूधमें जामन दे दे । इस प्रकार जामनकी जो मर्यादा कही १ खै हैं न० स० २ खैहे न० स० ३ न पैहे न० स० ४ सुनिए भवि चित्त विचारी स० ५ सुनिये हो भव्य व्रतधारी स०
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