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क्रियाकोष
दुरगति दायक दुःखको कोष ।
तैसो चरम वस्तुमें दोष, चरम वस्तु 'भक्षण करि जेह, मांसभखी सादृश है तेह ||१५९॥ तुरत मुए पशुको जो चाम, करिकै तास भाथडी ताम । भरै हींग तामें मिल जाय, खातो मांस दोष अधिकाय ॥ १६०॥ जाके मांसत्याग व्रत होय, हींग भव्य नहिं खावें कोय । हींग परै जिहि भाजनमांहि, सो चमार वासण 'समजांहि ||१६१॥ सवैया चामडेके मध्य वस्तु ताको जो आहार होय, अति ही अशुद्धताहि मिथ्यादृष्टि खाय है । दातारके दीए बिन निज इच्छा होय ऐसो,
असन लहाय नाम जतीको कहाय है । तिन बहिरातमा सों कहा कहै और सुनो,
बणियो सो भोजन क्रियातें हीण थाय है । हरित अनेक जुत मारग धरमवंत,
शुद्धता कहाय भेष धरै या गहाय है ॥१६२॥ दोहा जीमत भोजनके विषें, मुवो जनावर देख । " तजै नहीं वह असनको, पुरजन दुष्ट विशेख ॥ १६३॥
हैं वे मांसभक्षीके समान हैं ।। १५८ - १५९ ।। तुरन्त मरे हुए पशुके चमड़ेकी भाथड़ी बना कर उसमें जोग भरी जाती है उसमें मांस मिश्रित हो जाता है । जो इस हींगको खाते हैं उन्हें मांस खानेके समान दोष लगता है ॥ १६०॥ जिस भव्यजीवके मांस त्याग व्रत है वह हींग नहीं खावे। हींग जिस बर्तन में पड़ती है वह बर्तन चमारके बर्तनके समान है || १६१ ।। चमड़े के भीतर रक्खी हुई वस्तुओंसे जो भोजन बनता है वह अत्यन्त अशुद्ध होता है । मिथ्यादृष्टि ही उसे खाते हैं । दातारके देने पर अपनी निजकी इच्छाके बिना भी जो ऐसे आहारको लेता है उसे कोई नाममात्रका भी साधु नहीं कहता है । ऐसा जो भोजन करते हैं उन बहिरात्माओंसे क्या कहा जाय ? उपर्युक्त पदार्थोंसे निर्मित भोजन क्रियारहित है । कितने ही धर्मात्मा अनेक प्रकारकी हरित वस्तुओंसे युक्त आहारको लेते हैं तथा उसे शुद्ध कहते हैं सो वे नाममात्रके वेषधारी है || १६२ ||
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भोजन करते समय मृत पशुको देखकर जो भोजनको नहीं छोड़ता है वह नगरवासी जनों में विशेष दुष्ट माना जाता है || १६३ ॥
१ दुरगतिपंथ पापको कोष स० दुरगति दायक अघको कोष न० २ भक्षक नर जेह न० ३ मांसअहारी कहिये तेह स० ४ खातन स० खाता न० ५ सक नाहि स० सम आही न० ६ जिन क० ७ तजे न जो नर अशनको स०
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