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श्री कवि किशनसिंह विरचित
जीमण थानक जो परमाण, तहां जीमिए परम सुजाण । रांधणके भाजन हैं जेह, चौका बाहिर काढि न तेह ॥२०३॥ जो काढे तो मांहि न लेह, किरियावंत सो नहि संदेह । असन रसोई बाहिर जाय, सो वटवोयी नाम कहाय ॥२०४॥ अन्य जाति जो भीटै कोय, जिह भोजनको जीमे सोय । शूद्रनि भेले जीमे जिसो, दोष बखान्यो है वह तिसो ॥२०५॥ अन्य जातिके भेले कोई, असन करै निरबद्धी होई । यातें दूषण लगे अपार, जिमि पर जूंठि भखै मति छार ॥२०६॥ १निज सुत पिता भ्राता जान, चाचा मित्रादिक जो मान ।। भेलौ तिनके जीमण सदा, किरिया मांहि वरणो नहि कदा ॥२०७॥ तो परजात तणी कहा वात, क्रियाकांड ग्रंथन विख्यात । भाजन निज जीमनको जेह, माग्यो परको कबहू न देह ॥२०८॥ अरु परके वासणमें आप, जीमेतें अति बा. पाप ।
ग्रामान्तर जो गमन कराय, वसिहैं ग्राम सरायां जाय ॥२०९॥ वहाँ ज्ञानीजनोंको भोजन करना चाहिये। भोजन बनानेके जो बर्तन हैं उन्हें चौकाके बाहर नहीं ले जाना चाहिये और ले जाय तो फिर चौकाके भीतर नहीं लाना चाहिये । चौकाकी क्रियाका पालन करने वालोंको इसका ध्यान रखना चाहिये। जो भोजन रसोई घरसे बाहर ले जाया जाता है वह मार्गचला कहलाता है ॥२०२-२०४॥
अन्य जातिके लोगोंके साथ मिल कर-साथ बैठ कर जो भोजन करते हैं उसमें शूद्रोंके साथ मिलकर भोजन करने जैसा दोष बताया गया है ॥२०५॥ अन्य जातिके लोगोंके साथ मिलकर जो निर्बुद्धि भोजन करते हैं उसमें अपार दोष लगते हैं। वह भोजन परकी जूठन खानेके समान है ।।२०६॥ अपने पुत्र, पिता, भ्राता तथा चाचा, मित्र आदिके साथ एक थालीमें भोजन करनेका निर्देश जब क्रियाप्रतिपादक ग्रंथोंमें नहीं किया गया है तब अन्य जातिवालोंकी तो बात ही क्या है ? ऐसा क्रियाकाण्डके ग्रंथोंमें विख्यात है। अपने भोजन करनेका जो बर्तन है वह माँगने पर दूसरी जातिवालोंको कभी नहीं देना चाहिये ॥२०७-२०८॥
दूसरी जातिके बर्तनोंमें भोजन करनेसे बहुत पापकी वृद्धि होती है। अन्य ग्रामको जाते समय यदि किसी ग्रामकी सरायमें रहना पड़े और वहाँके बर्तन माँग कर उनमें खावे, भले ही खाद्य सामग्री अपने घरकी हो तो भी दूसरेके बर्तनोंमें खानेसे मांस खानेके बराबर दोष लगता है इसमें कुछ भी फेर नहीं है ॥२०९-२१०॥ गूजर, मीणा, जाट, अहीर, भील, चमार आदि जो
१ निज सुत पिता भ्राता जानिजै, चाचा मित्रादिक जानिजै स०
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