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श्री कवि किशनसिंह विरचित
आप व्रती तियको व्रत जबै, दोऊ दिन सील है बुध तबै । आठे चौदस परवी पांच, शीलव्रत पालै मन सांच ॥३१५॥ भादों मास अठाई पर्व, महा पूज्य दिन लखिये सर्व । ब्रह्मचर्य पाले इनमांहि, सुरसुख लहियत संसय नाहि ||३१६|| शीलकी नौ बाडें चौपाई
फुनि व्रतधर इतनी विधि धरे, ताहि शीलव्रत त्रिविध सु परे । जेहि वनिताको जूथ महन्त, तहां वास नहि करिये सन्त ॥ ३१७॥ रुचि धर प्रेम न निरखै त्रिया, ताको सफल जनम अरु जिया । पडदाके अंदर तिय ताहि, मधुर वचन भाषै नहि जाहि ॥ ३१८॥ पूरव भोग केलि की जती, तिनहि न याद करे शुभमती । लेइ नहीं आहार गरिष्ठ, तुरत शीलको करै जु भिष्ट || ३१९ ॥ कर शुचि तन शृंगार बनाय, किये शीलको दोष लगाय । जिह पलंगमें सोवे नार, सो सज्या तज बुध व्रतधार ॥ ३२० ॥ मनमथ कथा होय जिहि थान, तह क्षण रहै नहीं मतिवान । निज मुखतें कबहूं नहि कहै, ब्रह्मचर्य व्रतको जो गहै || ३२१ ॥
है ।।३१४।। जिस दिन आपके व्रत है और जिस दिन स्त्रीके व्रत है उन दोनों दिनोंमें ज्ञानी जन शील व्रत धारण करते हैं । अष्टमी, चतुर्दशी तथा पंचमीको सत्य मनसे शील व्रतका पालन करना 1 चाहिये ।।३१५।। भादोंका महिना तथा अष्टाह्निका पर्व ये सब अत्यन्त पूज्य दिन हैं । इनमें जो ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं वे देवगतिका सुख प्राप्त करते हैं इसमें संशय नहीं है ॥३१६॥
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आगे शीलकी नौ बाडें कहते हैं।
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शील व्रतका धारी मनुष्य इतनी विधि करे तो उसका शील व्रत मन वचन कायसे परिपालित होता है । जहाँ स्त्रियोंका समूह रहता हो वहाँ निवास नहीं करना चाहिये । जो रुचिसे प्रेमपूर्वक स्त्रियोंको नहीं देखता है उसीका जन्म और जीवन सफल होता है । जो स्त्री परदेके भीतर स्थित है उससे मधुर - रसीले वचन नहीं बोलना चाहिये । पहले जो भोगक्रीड़ा की है। उसका स्मरण नहीं करना चाहिये । गरिष्ठ आहार नहीं लेना चाहिये क्योंकि वह शीलको शीघ्र ही भ्रष्ट कर देता है। शरीरको उज्ज्वल कर शृंगार बनानेसे शीलको दोष लगता है । जिस पलंग पर स्त्री शयन करती है, उस शय्याका व्रती मनुष्यको त्याग करना चाहिये । जिस स्थान पर कामवर्धक कथाएँ हो रही हों वहाँ बुद्धिमान मनुष्यको एक क्षण भी नहीं रहना चाहिये । जिसने १ जह वनितनको जूथ महन्त स० २ बसन्त ख०
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