________________
५४
श्री कवि किशनसिंह विरचित
इह अतीचार चौथो ही, बुध करय न कबहूं योही । पंचम भनिये अतीचार, सुपनेमें मदन विकार ||३३७ ॥ उपजै तिय सेवन काम, विकलपता अति दुखधाम । औषधके पाक बनावै, बहुविध रसधातु मिलावै ॥ ३३८ ॥ अति विकल होय निजतियकों, सेवै हरषावे जियकों । बुधजन इह रीति न जोग, पण अतीचार इस भोग ॥ ३३९॥ दोहा
इनहि टाल व्रत सीलको पालो मन वच काय । इह भवतें सुरपद लहै, फिरि नृप है शिव जाय || ३४०|| परिग्रह परिमाण - अणुव्रत कथन चौपाई
क्षेत्र वास्तु आदिक दस जाण, परिग्रहतणों करै परिमाण । इनको दोष लगावै नहीं, वहै देशव्रत पंचम कही || ३४१ ॥
नाराच छन्द
करोति मूर्च्छना प्रमाण कर्ण सेवना विखें, त्रिलोक वेद ग्यान पाय श्री जिनेश यों अरौं । भवन्ति सौख्यसागरो अनन्त शक्तिकौं गहै, त्रिलोक वल्लभो सदा भवंतरे सिवं लहै ॥ ३४२ ॥
नामका पंचम अतिचार कहते हैं । कितने ही मनुष्योंको स्वप्नमें कामविकार उत्पन्न होता है, स्त्रीसेवनकी तीव्र इच्छा रहती है तथा मनमें अत्यन्त विकलता विद्यमान रहती है। कितने ही लोग कामोत्तेजक पाक बनवाकर उनमें नाना प्रकारके शक्तिवर्धक रस मिलाते हैं तथा अत्यन्त विकल होकर निज स्त्रीका सेवन करते हुए मनमें हर्षित होते हैं । ज्ञानीजनोंको शीलव्रतमें ये पाँच अतिचार लगाना योग्य नहीं है ।। ३३६ - ३३९ ॥ ग्रन्थकार कहते हैं कि हे भव्यजनों ! इन अतिचारोंको टालकर मन वचन कायसे शीलव्रतका पालन करो क्योंकि इसके प्रभावसे मनुष्य इस देह से देवपदको प्राप्त होता है और पश्चात् राजा होकर मोक्ष प्राप्त करता है || ३४०||
आगे परिग्रहपरिमाणाणुव्रतका कथन करते हैं :
Jain Education International
खेत, वास्तु ( मकान) आदि दश प्रकारके परिग्रहका परिमाण करना परिग्रह परिमाणाणुव्रत है। पंचम गुणस्थानवर्ती देशव्रती श्रावकको इसमें दोष नहीं लगाना चाहिये || ३४१|| तीन लोकके ज्ञाता श्री जिनेन्द्रदेव ऐसा कहते हैं कि जो जीव इन्द्रियविषयों-भोगोपभोगके पदार्थों का परिमाण करते हैं वे सुखके सागर होते हैं, अनन्त बलको प्राप्त होते हैं, सदा तीन लोकके प्रिय १ संजोग न० २ करे प्रमाण संगको जु अक्ष ( ईच्छ) सेवना सही, त्रिलोक वेदग्यान पाय श्री जिनेश यों कही । ००
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org