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क्रियाकोष
दोहा मन विकलप पसरै अधिक, विभव परिग्रह मांहि । लहै नहीं अघके उदै, फल नरकादि लहांहि ॥३४३॥
अडिल्ल जनम जरा फुनि मरण सदा दुखको सहै, बहु दूषणको थान रोग अतिही लहैं । भ्रमैं जगतके मांहि कुगति दुःखमें परें, २विषयनि मूर्छामांहि न संवर जे करें ॥३४४॥
दोहा व्रत परिग्रह प्रमाण नर, किये लहै फल सार । मन मुकलावे ठीक तजि, दुख भुगते नहि पार ॥३४५॥ यातें व्रत धरि भव्य जे, मन विकलप विस्तार । ताहि तजै सुख भोगवै, यामें फेर न सार ॥३४६॥ जे संतोष न आदरै, ते भव भ्रमैं सदीव । दुख करि याको जानिकै, त्याउत्तम जीव ॥३४७॥ दोष लगै या समझकैं, अतीचार पणि जाणि । तिनको वरणन भेद कछु आगे कहौं वखाणि ॥३४८॥
होते हैं और भवान्तरमें मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥३४२॥ वैभव या परिग्रहमें मनके अनेक विकल्प प्रसारको प्राप्त होते हैं परन्तु पापके उदयमें यह जीव वैभव या परिग्रहको प्राप्त नहीं कर पाता। प्रत्युत इसके विपरीत नरकादि गतिको प्राप्त होता है ॥३४३।। जो मनुष्य विषयोंकी मूर्छाममत्वभावका संवर नहीं करते हैं अर्थात् उसे रोकते नहीं है वे जन्म, जरा और मरणके दुःखको सहते हैं, अनेक दोषोंके स्थानभूत भयंकर रोगको प्राप्त होते हैं, संसारमें भ्रमण करते हैं और कुगतिके दुःखोंमें पड़ते हैं ॥३४४।। परिग्रहपरिमाण व्रतके प्रभावसे मनुष्य श्रेष्ठ फलको प्राप्त होता है अतः मनकी उत्कण्ठा-परिग्रह विषयक आसक्तिका त्याग करो। परिग्रही मनुष्य अपार दुःखको भोगते हैं ॥३४५।। इसलिये जो भव्यजीव परिग्रहपरिमाण व्रतको धारण कर मनके विकल्पोंको छोड़ते हैं वे सुखका उपभोग करते हैं इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।।३४६।। जो संतोषका आदर नहीं करते हैं वे सदा संसारमें परिभ्रमण करते हैं । इसीलिये उत्तम जीव इस परिग्रहको दुःखदायक जानकर इसका त्याग करते हैं ॥३४७॥ पाँच अतिचाोंसे इस व्रतमें दोष लगता है, यह समझकर आगे उन अतिचारोंका कुछ वर्णन करते हैं ॥३४८॥
१ मन विकलप तृष्णा अधिक क. २ नियम न मूर्छामांहि न० ३ परिग्रह व्रत धारे नही क. ४ पुणि स० न०
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