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श्री कवि किशनसिंह विरचित अहिंसाणुव्रतके अतिचार
छन्द चाल बांधे नर पशुयन केई, रज्जूबंधन दृढ देई । लकुटादिकतें अति मारें, पाहन मूठी अधिकारे ॥२६८॥ नासा करणादिक छेदें, परवेदनको नहि वेदें । पशुयनको भाडो करि हैं, इतनो हम बोझ जु धरि हैं ॥२६९॥ पीछे लादें बहु भार, जाके अघको नहि पार । खर बैल ऊंट अरु गाडो, मरयाद जितो कर भाडो॥२७०॥ हासिलको भय कर जानी, बुधि भार न अधिक धरानी । घोटक रथ है असवारे, चालै निस सांज सवारे ॥२७॥ तसु भूख त्रिषा नहि छूजे, ताको पर दुख नहि सूजै । काहू नरके सिर दाम, ताको रोकैं निज धाम ॥२७२॥ तिहिं खान पान नहि देई, 'क्रोधादिक अधिक करेई ।
ए अतीचार भनि पांच, अदयाको कारण सांच ॥२७३॥ करते हैं ऐसा जिनेन्द्रदेवने बतलाया है। इसलिये हिंसापूर्ण क्रियाओंको छोड़कर करुणाभाव हृदयमें धारण करो, ऐसा क्रियाकोष ग्रंथके रचयिता कृष्णसिंह (किशनसिंह) कवि कहते हैं ॥२६७॥
आगे अहिंसाणुव्रतके अतिचार कहते हैं
कितने ही मनुष्य गाय, भैंस आदि पशुओंको बाँधकर रखते हैं और उन्हें मजबूत रस्सीका बंधन देते हैं, यह बंध नामका अतिचार है। कितने ही लकड़ी, पत्थर तथा मुक्के आदिसे मारते हैं, यह वध नामका अतिचार है ॥२६८॥ कितने ही लोग पशुओंके नाक, कान आदि अंगोंको छेदते हैं और उनकी वेदना-पीड़ाका अनुभव नहीं करते, यह छेद नामका अतिचार है। कितने ही लोग पशुओंका भाड़ा करते हैं, भाड़ा करते समय कहते हैं कि हम इतना बोझा रक्खेंगे; परन्तु अधिक बोझ-अधिक भार लाद देते हैं, यह अतिभारारोपण नामका अतिचार है। इसके पापका पार नहीं है इसलिये गधा, बैल, ऊँट और बैलगाड़ी आदिका भाड़ा करते समय जो मर्यादा निश्चित की है उससे अधिक भार नहीं लादना चाहिये। कितने ही लोग घोडागाड़ी आदिकी सवारी रखते हैं उसमें वे घोड़ेको रातमें तथा प्रातःकालसे शाम तक जब चाहे तब चलाते हैं परन्तु उसके भूख प्यास
आदिका ध्यान नहीं रखते, उसके दुःखका अनुभव नहीं करते। किसी मनुष्यसे रुपये लेना है उसे कितने ही लोग अपने घर रोक रखते हैं परन्तु उसे भोजन-पानी नहीं देते, प्रत्युत क्रोधादिक कषाय प्रकट करते हैं। यह अन्नपाननिरोध नामका अतिचार है। ये पाँचों अतिचार अदयाके कारण हैं ॥२६९-२७३।। जो करुणाव्रत-दयाव्रतके पालक हैं वे मनमें स्नेह धारणकर इन अतिचारोंको
१ त्रासादिक स०
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