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क्रियाकोष
सत्यवचनके अतिचार
छन्द चाल निज झूठ वचन नहि भाखे, अवरनि उपदेश जु आखे ।
परगुप्त वात जो थाही, ताको तें प्रगट कराही ॥२८४॥* पत्री झूठी नित मांडे, केलवणी हिय नहि छांडे । लेखी फुनि मांडे झूठो, खत हू लिख है जो अपूठो ॥२८५॥ तासों शुभ कर्मजु रूठो, अघ अधिक महा करि तूठो । २को धरिहै धरोकडि आई, जासों जा मुकरि सु जाई ॥२८६॥ साक्षी दस पांच बुलावै, तस झुठो करि ठहरावै । इस पापतणों नहि पारा, कहिए कहुंलो निरधारा ॥२८७॥ दुहं पुरुष जुदे बतलावै, तिन मिलती हिए अणावै । दुहुँ मुख आकार लखाई, परसों सो प्रगट कराई ॥२८॥ दूखें उनके परिणाम, अधदायक हैं इह काम ।
लख अतीचार दुइ तीन, व्रत सत्य तणा परवीन ॥२८९॥ छोड़ता, उसे वसूल करनेके लिये झूठे लेख लिखता है तथा बनावटी दस्तावेज आदि लिखता है, यह कूट लेख क्रिया नामका अतिचार है। कवि कहते हैं कि ऐसा करनेवालेसे शुभ कर्म-पुण्य कर्म रुष्ट हो जाते हैं और पापकर्म अधिक संतुष्ट होते हैं। तात्पर्य यह है कि वह पापबन्ध करता है। कोई धरोहर रख गया हो उसे देनेसे मुकर जाना तथा दश पाँच लोगोंको बुला कर उनके सामने उसे झूठा सिद्ध कर देना; अथवा धरोहर रखनेवाला धरोहरकी संख्या भूल कर थोड़ा माँगने लगे तो उससे कहना कि जो तुम्हारा हो सो ले जाओ-इस तरह पूरी धरोहर अथवा उसके अंशको हड़प करनेके वचन कहना न्यासापहार नामका अतिचार है। ग्रन्थकार कहते हैं कि इस पापका कोई पार नहीं है उसका निर्धार कहाँ तक कहूँ ? ॥२८५-२८७॥ दो पुरुष परस्पर किसी बातको कह रहे हैं उनकी मुखाकृति आदिसे हृदयकी बातको जान कर दूसरोंके सामने उसे प्रकट कर देना यह साकार मंत्रभेद नामका अतिचार है। इस कार्यसे बात करने वाले लोगोंका परिणाम-भाव दुःखी होता है इसलिये यह कार्य पापको देनेवाला कहा गया है। सत्यव्रतकी रक्षा करनेमें प्रवीण
१ परद्रव्य गुपत जो थाही स० २ को धरीहै धरोहर लाई, पीछे संख्या विसराई ख० * छन्द २८४ के आगे स प्रतिमें निम्नलिखित पाठ अधिक है
पत्री पर तनी छिपावे, जो कूट लेख सो थावे । लेखो कूटलेख लखावे, परकाज काज दरसावे ।। कोउ धरै मालनी ल्याई, पीछे संख्या विसराई। तसु हीन दीन परिनामा, न्यासापहार इम नामा ।। काहू रुचि लखि मन पावे, तसु मतलब हिय न आवे । मुखको आकार लखाई, परसों जो प्रकट कराई।
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