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श्री कवि किशनसिंह विरचित
तजि है दिल दोय परकार, सो निहचै श्रावक निरधार । ककड़ी पेठो अरु खेलरा, इनको छांछ दहीमें धरा ॥ १११ ॥ लूण भेल जिहि मांहिं, करे रायता मूरख खांहिं । राई लूण परै निरधार, उपजै जीव सिताव अपार ||११२॥ राई लूण मिलो जो द्रव्य, ताहि सर्वथा तजिहै भव्य । कपडै बांध दहीको धरै, मीठो मेल शिखरिणी करै ॥११३॥ खारिख दाख घोल दधिमांहिं, मीठो भेल रायता खांहिं । मीठो जब दधिमांहिं मिलाहिं, अन्तरमुहूर्त्त त्रस उपजाहिं ॥११४॥ यामैं मीठा जुत जो दही, अन्तमुहूरत मांहे सही । खावो भविजनको हितदाय, पीछे सन्मूर्च्छन उपजाय ॥ ११५ ॥ उक्तं च गाथा - इक्खु दही संजुत्तं भवन्ति समूच्छिमा जीवा । अन्तोमुहूत मज्झे तम्हा भांति जिणणाहो ॥ ११६ ॥ कांजीका वर्णन
दोहा - कांजी कर जे खात है, जिह्वा लम्पट मूढ । पाप भेद जाने नहीं, रहित विवेक अगूढ ॥११७॥ अब ताकी विधि कहत हों, सुणी जिनागम जेह । ताहि सुनत भविजन तजो, मनका सकल संदेह ॥ ११८ ॥
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ककड़ी, पेठा और खेलरा ( ?) इनको छांछ और दहीमें रखकर तथा राई और नमक मिलाकर अज्ञानी जन रायता बनाते हैं तथा खाते हैं सो उसमें राई और नमकके पड़नेसे शीघ्र ही अपार जीवों की उत्पत्ति हो जाती है ।।१११-११२ ॥ राई और नमक मिला हुआ जो भी पदार्थ है, उसका हे भव्यजीवों ! त्याग करो। कितने ही लोग कपड़ेमें दहीको बाँध कर रखते हैं, पश्चात् मीठा मिलाकर शिखरिणी (श्रीखण्ड) बनाते हैं । इसके सिवाय कितने ही लोग खारेक और दाखके घोलको दहीमें मिलाकर तथा मीठा डाल कर रायता खाते हैं सो दहीमें मीठा मिलाने पर अन्तर्मुहूर्तमें त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं । मीठा सहित दही अन्तर्मुहूर्त तक तो ठीक रहता है, भव्य जीव उसे खा सकते हैं। परन्तु पश्चात् उसमें संमूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं ।।११३-११५॥ जैसा कि गाथामें कहा गया है-मीठा और दही मिलाने पर अन्तर्मुहूर्तमें संमूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवानने कहा है ॥ ११६ ॥
कांजीका वर्णन
जो जीभके लोभी विवेकहीन मनुष्य पापका भेद नहीं जानते हैं वे कांजी (चाट) आदि खाते हैं। अब उसकी विधि कहते हैं जैसी कि जिनागममें सुनी है । हे भव्यजीवों ! उसे सुनकर
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१ उपजै जंगम जीव अपार स०
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