Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २३j
णोकम्मसंकमसरूवणिदेसो देशान्तरमिति संक्रमशब्दव्युत्पादनात् । णईतोये अण्णत्थ वा कत्थ वि कट्ठाणि ठविय जेणेच्छिदपदेसं गच्छंति सो कट्ठमओ संकमो कट्ठसंकमो त्ति भणियं होइ । णिदरिसणमेत्तं चेदं तेणिट्ट-पत्थर-मट्टिया-फलहसंकमाईणं गहणं कायव्वं, णोकम्मदव्वत्तं पडि विसेसाभावादो।
लड़की रूप तो होती नहीं, फिर इन्हें यहाँ संक्रम संज्ञा कैसे दी है ?
समाधान नहीं क्योंकि जिससे एक देशसे दूसरे देशमें संक्रमण किया जाता है वह संक्रम है, संक्रम शब्दकी इस व्युत्पत्तिसे उक्त कथन बन जाता है। नदी किनारे या अन्यत्र कहीं काष्ठोंको रखकर जिससे इच्छित स्थानको जाते हैं वह काष्ठमय संक्रम काष्ठसंक्रम है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यह उदाहरणमात्र है इसलिये इससे इष्टकासंक्रम, पाषाणसंक्रम, मृत्तिकासंकम और फलकसंक्रम इत्यादिका ग्रहण करना चाहिये, क्यों कि ये सब नोकर्मद्रव्य है, इस अपेक्षा काष्टसे इनमें कोई विशेषता नहीं है ।
विशेषार्थ—पहले नामसंक्रम आदि छह संक्रमोंका उल्लेख कर आये हैं। यहाँ पर उन्हींका अर्थ दिया गया है। इनमें से नामसंक्रम, स्थापनासंक्रम, आगमद्रव्यसंक्रम और भागमभावसंक्रम इन्हें सरल समझ कर चूर्णिसूत्रकारने इनका खुलासा नहीं किया है। फिर भी यहाँ पर क्रमबार सभीका खुलासा किया जाता है। किसीका संक्रम ऐसा नाम रखना नामसंक्रम है। किसी अन्य वस्तुमें 'यह संक्रम है। ऐसी स्थापना करना स्थापनासंक्रम है। द्रव्यसंक्रमके दो भेद हैं-आगमद्रव्यसंक्रम और नोआगमद्रव्यसंक्रम । जो संक्रमविषयक शास्त्रका ज्ञाता हो किन्तु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित हो वह आगमद्रव्यसंक्रम है । नोआगमद्रव्यसंक्रमके दो भेद हैं-कर्मनोआगमद्रव्यसंक्रम और नोकर्मनोआगमद्रव्यसंक्रम । कर्मनोआगमद्रव्यसंक्रम संक्रमको प्राप्त होनेवाला कर्म कहलाता है। यहाँ इस अनुयोगद्वारमें इसीका विस्तृत विवेचन किया जानेवाला है। नोकर्मनोआगमद्रव्यसंक्रम वे सहकारी कारण कहलाते हैं जिनके निमित्तसे एक देशसे दूसरे देशमें जानेमें सुगमता हो जाती है। उदाहरणार्थ लकड़ीका पुल, नौका, इटों, पत्थरों व फलकोंका पुल आदि। यद्यपि यहाँ संक्रम शब्दका अर्थ संक्रमण करके उसका यह नोकर्म बतलाया है पर कर्मद्रव्यसंक्रमका भी इसी प्रकार नोकर्म जान लेना चाहिये । जो कर्मद्रव्यके संक्रमणमें सहकारी होगा वह कर्मद्रव्यका नोकर्म कहलायगा । उदाहरणार्थ-असाताके कर्मपरमाणुओंको सातारूप परिणमानेमें सम्पत्ति आदि निमित्त पड़ते हैं, इसलिये ये असाताकर्मके साताकर्मरूप संक्रमणके निमित्त कारण हैं। इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना चाहिये । एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें जाना क्षेत्र संक्रम है। जैसे ऊर्धलोकसे मध्यलोकमें जाना यह क्षेत्रसंक्रम है। कालका एक ऋतुको छोड़कर दूसरी ऋतुरूप होना या एक कालके स्थानमें दूसरा काल आ जाने पर भी पूर्व कालका पुनरागमन मानना कालसंक्रम है। जैसे वर्षाकालके बाद हेमन्त ऋतु आती है सो यह कालसंक्रम है। या हेमन्त ऋतुके बाद शिशिरऋतु आदि व्यतीत होकर पुनः हेमन्त ऋतुका आना इत्यादि कालसंक्रम है। भावसंक्रमके दो भेद हैं-आगमभावसंक्रम और नोआगमभावक्रम । जो संक्रमविषयक शास्त्र को जानता है और उसके उपयोगसे युक्त है वह आगमभावसंक्रम है । तथा नोआगमभाव संक्रममें प्रेम आदिरूप भाव लिये गये हैं। इनका एकसे दूसरेमें संक्रमित होना यह नोआगम भावसक्रिम है। इस प्रकार जो संक्रमका छह निक्षपोंमें विभाग किया था उसका किस निक्षेपकी अपेक्षा क्या अर्थ है इसका खुलासा किया।
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