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जिन सत्र भाग: 1
भी जीना पड़े, तो भी जीऊंगा! मैं जीना चाहता हूं, मुझे क्या फिक्र उसका पता चल जाएगा जो सदा सुरक्षित है। है कि कौन मरता है !
तो महावीर की सारी अहिंसा का सूत्र यही है, कि तुम्हारे जैसे ही सभी जीना चाहते हैं । तुम वही करो उनके साथ जो तुम अपने साथ करना चाहते हो। तो तुम किसी को मारो मत! लेकिन जो किसीको न मारेगा, वह मरना शुरू हो जाएगा।
यह जीवन तो बड़ा संघर्ष है। यहां तो तुम दूसरे की गर्दन न दबाओ तो कोई तुम्हारी गर्दन दबाएगा। यहां तो सुरक्षा का सबसे श्रेष्ठ उपाय आक्रमण है। मैक्यावली से पूछो ! महावीर से अहिंसा समझ लो, मैक्यावली से हिंसा समझ लो । मैक्यावली कहता है कि इसके पहले कि कोई हमला करे, हमला करो; इसके पहले कि कोई तुम पर हमला करे, हमला कर दो। मौका मत दो पहल का, अन्यथा तुम पिछड़ ही गए संघर्ष में मार लो, मार डालो, इसके पहले कि कोई तुम्हें मारे । यही सूत्र है— जीवन में संघर्ष का, अपने को बचाने का । बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। तुम शक्तिशाली बनो और दूसरों को पीते चले जाओ। उसी में तुम्हारा जीवन है।
महावीर कहते हैं, ऐसे जीवन को क्या करोगे? इस जीवन का सार भी क्या है, अर्थ भी क्या है ? बच भी जाएगा तो क्या बचेगा, हाथ क्या लगेगा? हाथ-लाई क्या होगी ?
महावीर कहते हैं, सब देखा ! सारा जीवन झूठा है, भ्रांत है। यह दूसरे को मारने योग्य तो है ही नहीं। अगर दूसरे को बचाने में अपने को मिटा भी देना पड़े तो मिटा दो - इसमें कुछ हर्जा नहीं है, कुछ जा नहीं रहा है । और महावीर इतने आश्वस्त होकर यह कहते हैं, क्योंकि वे जानते हैं; जो तुम्हारे भीतर अंतर्तम में छिपा हैं उसकी कोई मृत्यु नहीं है। जिसे तुम बचा रहे हो, वह तुम्हारी झूठी प्रतिमा है; वह तुम्हारा स्वयं के प्रति झूठा भाव है। जिसे तुम बचा रहे हो, अहंकार, वह तो मरेगा। वह तो समाज का दिया हुआ है; मौत के साथ समाप्त हो जाएगा। तुम जैसे आए थे, कोरे, कुंआरे, जन्म के साथ, ऐसे ही कुंआरे-कुंआरे तुम मृत्यु के साथ जाओगे। तुम्हारा नाम-धाम, पता-ठिकाना, सब यहीं छूट जाएगा। और वह जो मृत्यु के पीछे भी चला जाता है तुम्हारे साथ और जन्म के पहले भी तुम्हारे पास था, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। तुम दौड़ छोड़ो बचने की, तो तुम्हें उसका पता चलेगा जो सदा ही बचा हुआ है। तुम अपनी सुरक्षा न करो, तो तुम्हें
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मैं कहता हूं शून्य होने की बात, तो उसका कुल इतना ही पूर्ण हो। इधर तुम शून्य होने को राजी हुए तो तुम्हारी दौड़-धूपमिटी । दौड़-धूप मिटी तो सारी चेतना मुक्त हुई दौड़-धूप से, चेतना घर लौटी। बाहर नहीं जाओगे तो कहां जाओगे? घर आओगे ! घर आने का कोई रास्ता थोड़े ही है - बस बाहर जाना छोड़ देना है कि घर आ गए। घर तो तुम हो ही, तुम्हारी वासना ही भटकती है दूर-दूर ।
यहां तुम बैठे मुझे सुन रहे हो : हो सकता है, तुम यहां सिर्फ बैठे हो शरीर की भांति, तुम्हारी वासना कहीं और भटकती है— कलकत्ते में होओ, दिल्ली में होओ, बंबई में होओ। तो जितना तुम्हारा मन बंबई में चला गया मुझे सुनते वक्त, उतने तुम यहां नहीं हो। अगर तुम्हारा पूरा मन ही बंबई में चला गया, तो तुम यहां बिलकुल नहीं हो। यहां तुम्हारा होना न होना बराबर है। तुम होते न होते कोई फर्क नहीं पड़ता। सिर्फ एक प्रतिमा बैठी है, जिसमें कोई प्राण नहीं है। क्योंकि प्राण तो वासना में भटक गए। तुम कहीं जाते थोड़े ही हो बाहर; वासना में मन उलझा कि तुम बाहर गए ! वासना बहिर्गमन का मार्ग है । वासना बाहर जाना है। क्षणभर को भी अगर तुम बाहर न जाओ तो तुम जाओगे कहां फिर ? जब बाहर जाने के सब सेतु टूट गए, सब द्वार - दरवाजे बंद हो गए, सब मार्ग व्यर्थ हो गए, न तुम धन में गए, न तुम पद में गए, न तुम प्रेम में गए, तुम कहीं बाहर गए ह नहीं, तो तुम अचानक अपने को घर में बैठा हुआ पाओगे-जहां तुम सदा से बैठे हुए हो; जहां से तुम क्षणभर को भी हटे नहीं, तिलभर को भी हटे नहीं; जहां से हटने का कोई उपाय नहीं। उसी को महावीर स्वभाव कहते हैं। उसी को महावीर धर्म कहते हैं, जिससे हटा न जा सके, जिसे खोकर भी खोया न जा सके, जिसे मिटाकर भी मिटाया न जा सके। जिसे तुम लाखों जन्मों में चेष्टा कर-कर के, भटक भटककर भी नहीं अपने से छुड़ा पाए हो, वही तुम्हारा स्वभाव है। जो छूट जाए, वह पर - भाव है ।
तुम्हारे वस्त्र छीने जा सकते हैं; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं । तुम्हारा शरीर छिन जाता है; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं । तुम्हारा मन भी छिन जाता है, वह भी तुम्हारा स्वभाव नहीं । देह और मन के पार कुछ है— अनिर्वचनीय, जिसे न कभी छीना जा सका है,
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