Book Title: Jin Shatakam Satikam
Author(s): Lalaram Jain
Publisher: Syadwad Ratnakar Karyalay

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्याद्वादग्रन्थमाला | सदक्षेति--सह दक्षैर्विचक्षणैः सह वर्त्तन्त इति सदक्षाः । सदाइच ते राजानश्च सदक्षराजानः तैः राजित: शोभित: सदक्षराजराजित: तस्य सम्बोधनं हे सदक्षराजराजित । प्रभाया: विज्ञानस्य उदयो वृद्धि - सौ प्रभोदयस्तस्य सम्बोधनं हे प्रभोदय । स्वेषां स्वानां वा वर्द्धनः नन्दनः स्ववर्द्धनस्त्वम् । अथवा स्ववर्द्धनः अस्माकम् । स एवं विशिष्ट स्त्वं । तान्तः विनष्टः मोह : मोहनीयकर्म यस्यासौ तान्तमोहः तस्य सम्बोधनं मो तान्तमोह । रंजयन् अनुरागं कुर्वन् इत्यर्थः । महान् पृथुः पूज्यः उदयः उद्भूतिर्येषां ते महोदयाः देवेन्द्रचक्रेश्वरादयः । अपरान् अन्तःशत्रून् मोहादीन् आसमन्तात् जयंतीति कर्त्तरि क्विप् अपराजितः । महोदयाश्च ते अपराजितश्च ते महोदयापराजित: । अथवा द्वन्द्वः समास: तान् महोदवापराजितः कर्मणि इपो बहुत्वम् । समुदायार्थः हे अजित भट्टारक सदक्षराजराजित प्रभोदय स्ववर्द्धनः त्वं सः तान्तमोह रंजयन् महोदयापराजित: : महः दयस्व ॥ १७ ॥ हे भगवन् आपकी सेवामें अनेक सुचतुर राजां सदा उपस्थित रहते हैं, आपका विज्ञान सदा उदय ही रहता है आप ही अपने आत्माके उन्नति कारक हैं, मोहरहित हैं, बड़ी २ ऋद्धियोंके धारक इन्द्र चक्रवर्त्ति तथा काम क्रोधादिक अन्तरंग शत्रुओं को जीतनेवाले मुनि आदिकोंको प्रसन्न करनेवाले हैं। हे प्रभो ! जिसके प्रसादसे आप ऐसे हुये हो वह सम्यग्ज्ञान मुझे भी दीजिये ॥ १७ ॥ इति अजितनाथस्तुतिः । For Private And Personal Use Only

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