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जिनशतक ।
८१
सतां मग्नमंश्यतां सन्तानं प्रोद्धर्तुमिव । किमुक्तं भवति-भहारकास्य सिद्धिगमनं सकारणमेव ' परार्थे हि सतां प्रयत्नः ॥ ८ ॥
हे प्रभो ! शान्तिनाथ ! आप इस लोकमें ही कृतकृत्य (सिद्ध वा मुक्त ) हो चुके थे । तथापि लोकाग्रभाग अर्थात् सिद्धशिलापर जा विराजमान हुये । हे देव ! आपका यह ऊपर जाना निष्प्रयोजन नहीं है किन्तु जन्म मरण रूप दुःखसागरमें पड़े हुये वा पड़ते हुये भव्यजीवोंके समूहको निस्तार करनेके लिये ही आप ऊपर जा विराजमान हुये हो । अभिप्राय यह है कि जैसे कोई विशेष शक्तिशाली पुरुष अपनी सामर्थ्यसे किसी ऊंचे स्थानपर चढ़ जाय तो वह नीचे के जलाशयमें पड़े हुये प्राणियोंको रस्सी द्वारा सहज रीतिसे ऊपर खींच सकता है । उसी प्रकार अपने गुणों द्वारा संसारसमुद्रमें पड़े हुये प्राणियों को उद्धार करनेके लिये ही मानो शान्तिनाथ भगवान ऊपर सिद्धशिलापर जा विराजमान हुये हैं ॥ ८० ॥
इति शान्तिनाथस्तुतिः।
सर्वपादान्तयमकः। कुंथवे सुमृजाय ते नम्यूनरुजायते । ना महीष्वनिजायते सिद्धये दिवि जायते ॥ ८१॥
कुंथवे इति--सर्वपादान्तेषु जायते इति पुनः पुनरावर्तितं यतः । कुंथवे कुथुभट्टारकाय सप्तदशतीर्थकराय । सुमृजाय सुशुद्धाय । ते तुभ्यम् । नमः नमनशीलः विसर्जनीयस्ययत्वम् , ऊना विनष्टा रुजा
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