Book Title: Jin Shatakam Satikam
Author(s): Lalaram Jain
Publisher: Syadwad Ratnakar Karyalay

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Page 89
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८६ स्याद्वादग्रन्थमाला । ददातीति वारिवारिराः तस्मिन् वारिवारिरि सर्वव्यापिनीरदे । वारि वा जलमिव । वा शब्दः इवाथै दृष्टव्यः । किमुक्तं भवतिहे अरतीर्थेश्वर वीराधार वरर वारावी त्वं उरोरपि उरुः त्वं तथा अवाररवारावी त्वं यथा वारिवारिरि वारि वा यतः तत; अव । सामान्यवचनमेतत् मा अव अन्याश्च पालय ।। ८५ ॥ हे अरनाथ ! भगवन् आप नरकादि कुगतियोंको निवारण करनेवाले हैं, भक्तजनोंकी रक्षा करनेवाले हैं, ईप्सित फलको देनेवाले हैं, बड़ोंसे भी बड़े हैं, शूर हैं। हे देव ! जैसे सम्पूर्ण आकाशमंडलमें व्याप्त होनेवाले बादलमें सर्वत्र जल रहता है उसी प्रकार आपकी दिव्यध्वनि भी सर्वत्र अप्रतिहत है । कहीं रुक नहीं सकती न कुंठित ही होती है । हे प्रभो ! आप मेरी भी रक्षा कीजिये तथा औरोंकी भी रक्षा कीजिये ॥ ८५ ॥ अनुलोमप्रतिलोमश्लोकः । रक्ष माक्षर वामेश शमी चाररुचानुतः । भो विभोनशनाजोरुनमेन विजरामय ॥८६॥ रक्षमेति-क्रमपाठेनैकश्लोकः विपरीतपाठेनाप्यपरश्लोकः । अर्थश्चः निनः । ___ रक्ष पालय । मा अस्मदः इबन्तस्य रूपम् । अक्षर अनश्वर । वामेश प्रधानस्वामिन् । शमी उपशान्तः त्वमिति सम्बन्धः । चारु चानुनः शोभनभक्तिना पुरुषेण प्रणुतः । भो विभो हे त्रैलोक्यगुरो । अनदान अनाहार अविनाश इति वा । अज परमात्मन् उरव; महान्तः नम्राः नमनशीलाः यस्यासाचुस्नम्रः तस्य सम्बो For Private And Personal Use Only

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