Book Title: Jin Shatakam Satikam
Author(s): Lalaram Jain
Publisher: Syadwad Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 107
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ स्याद्वादग्रन्थमाला । दायते गोष्पदमिवात्मानमाचरति । समुदायार्थः-प्रज्ञायां तनु ऋतं गत्वा स्वालोकं गोविंदा अस्यते पुरुषेण तव पुनः ज्ञानान्तर्गतं भूत्वा त्रैलोक्य गोष्प दायते तथापि न हर्षा नापि विषादो यतः त्वमेव सर्वज्ञो वीतरागदच अतः तुभ्यं नमोस्तु इति सम्बन्धः ॥ १०५ ॥ ___ हे। भगवन् ये संसारीजन अपनी तुच्छ बुद्धिके अनुसार थोड़ेसे पदार्थोंको भी सत्यस्वरूप जानकर समस्त पृथ्वीके ज्ञाता कहलाते हैं । अर्थात् उस थोड़ेसे ज्ञानसे ही उन्हें इतना हर्ष होता है कि वे जगतके ज्ञाता कहलाते हैं परंतु हे प्रभो ! आपके अपरिमित ज्ञानमें यह त्रैलोक्य एक गोष्पदके समान जान पड़ता है । अर्थात् आपका ज्ञान इतना विस्तृत है कि उसमें यह इतना बड़ा त्रैलोक्य (तीनों लोकोंमें रहनेवाले संपूर्ण पदार्थ) भी अतिशय छोटा जान पड़ता है । हे देव ! आप इतने बड़े महाज्ञानी होकर भी हविषादरहित हैं अतएव आप ही वीतराग हैं । आपकेलिये ही मैं नमस्कार करता है ।। १०५ ।। श्लोकयमकः । को विदो भवतोपीड्यः सुरानतनुतान्तरम् । शं सते साध्वसंसारं स्वमुद्यच्छन्नपीडितम् ॥१०६॥ कोवीति-कः किमोरूपम् । विदो ज्ञानानि । भवतः त्वत्तः । अपि । ईट् स्वामी । य: यदोरूपम् । सुरान् अमरान् । अपि शब्दोऽत्र सम्बन्धनीयः सुरानपीति अतनुत विस्तारयतिस्म । अन्तः चित्ते भवं आन्तरं आत्मोत्थम् । शं सुखम् , सते शोभनाय | साधु शोभनं । असंसार सांसारिकं न भवति । सुष्ठु अमुत् स्वमुत् विनष्टराग इत्यर्थः । यच्छन् ददन । अपीडितं अबाधितम् । समुदायार्थ:-हे वर्धमान भवतो नान्यः For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132