Book Title: Jin Shatakam Satikam
Author(s): Lalaram Jain
Publisher: Syadwad Ratnakar Karyalay

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Page 116
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनशतक । ११३ तस्थ सम्बोधन हे आधीर । सुधीर अभि । विदां पण्डितानां वरः प्रधान: विदरः तस्य सम्बोधनं हे विद्वर । गुरो स्वामिन् । रक्तं भक्तम् । चिरं अत्यर्थम् । मा अस्मदः प्रयागः । स्थिर नित्य । एतदुक्तं भवतिहे भट्टारक रम्य इत्यादि गुणविशिष्ट फरकटोरदुर्द्धररुजोरक्तान रक्षन् मा रक्तं रक्ष ॥ ११२ ॥ हे भगवन् ! आप अतिशय सुंदर हो । अनंतगुणोंके धारक हो । ज्ञानावरणादि काँसे रहित हो । इन्द्रादिक देव भी आपकी पूजा करते हैं । हे प्रभो ! आप विनाशरहित हो । समवसरणादि लक्ष्मीके धारक हो । रागरहित हो । द्वेषसे बहुत दूर हो । अतिशय देदीप्यमान हो । अनंत चतुष्टयादि उत्कृष्ट ऋद्धियोंके स्वामी हो । सबके नायक हो । सबको शरण देनेवाले हो। जरारहित हो । अनेक मानसिक व्याधियोंको दूर करनेवाले हो । क्षाभरहित हो विद्वानोंमें श्रेष्ठ हो। सबके गुरु हो । नित्य हो, और सुन्दर दिव्यध्वनिकर सुशोभित हो । हे देव ! आपके जो भक्तजन हैं उन्हें इन कठिन भयानक और अतिशय दुर्द्धर जन्ममरणादि व्याधियोंसे रक्षा कीजिये, तथा मैं भी आपका एक भक्त हूं इसलिये हे नाथ ! मेरी भी रक्षा कीजिये ॥ ११२ ॥ इति वर्द्धमानस्तुतिः । चक्रवृत्तम् । प्रज्ञा सा स्मरतीति या तव शिरस्तद्यन्नतं ते पदे जन्मादः सफलं परं भवभिदी यत्राश्रिते ते पदे। For Private And Personal Use Only

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