Book Title: Jin Shatakam Satikam
Author(s): Lalaram Jain
Publisher: Syadwad Ratnakar Karyalay

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Page 119
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्याद्वादग्रन्थमाला। तवैव मते, ममार्चनमपि यत्तत् त्वय्येव, मम हस्तौ यो त्वत्प्रणामा अलि. निमित्तम् , कर्णश्च मम ते कथाश्रुतिरतः, अनि च मम तव रूपदर्शन निमित्तम् , मम व्यसनमपि तब स्तुत्याम् , शिरश्च मम राब नतिपरम् । येन कारणेन ईदृशी सेवा मम हे तेज:पते तेनैव कारणेन अहमेव तेजस्वी सुजनः सुकृती नान्य इत्युक्तं भवति ॥ ११४ ।। हे भगवन् ! मेरी श्रद्धा केवल आपमें ही है । मैं स्मरण भी केवल आपका ही करता हूं । पूजन भी केवल आपका ही करता हूं ! ये मेरे दोनों हाथ केवल आपको प्रणाम करने और आपकेलिये अंजलि देने ( हाथ जोड़ने ) के काम आते हैं । मेरे कान• सदा आपकी कथा सुननेमें ही तत्पर रहते हैं । मेरे नेत्र सदा आपके रूप देखनेमें ही लगे रहते हैं । मेरा व्यसन अर्थात् अभ्यास आपकी स्तुति करने में ही है। मेरा मस्तक भी केवल आपको नमस्कार करने में ही काम आता है । हे प्रभो ! हे परमात्मन् मैं आपकी ऐसी सेवा करता हूं अतएव हे तेजोनिधे ! (केवलज्ञानके स्वामी) समझना चाहिये कि संसारभे में ही तेजस्वी हूं में ही सुजन हूं और मैं ही पुण्यवान् हूं । मेरे समान तेजस्वी सुजन और पुण्यवान् अभ्य कोई नहीं है ।। ११४ ॥ चक्रवृत्तम् । जन्मारण्यशिखी स्तवः स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधेनौः पदे भक्तानां परमौ निधी प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा। For Private And Personal Use Only

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