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जिनशतक ।
हैं । आपका ज्ञान भी स्वपर प्रकाशक है । हे स्वामिन् ! इन्द्रियोंके जीतनेवालोंमें आप श्रेष्ठ हैं , अनेकान्तात्मक सत्यस्वरूपका निरूपण करनेवाले हैं, पीड़ा, क्रीडा, जरा, कामोद्रेक आदि व्याधियोंसे रहित हैं । हे प्रभो ! मुझे भी इन पीड़ादिक दुःखोंसे निकालकर सुखी कीजिये ॥ ८८ ।।
यथेष्टेकाक्षरान्तरितमुरजबन्धः । वीरं मा रक्ष रक्षार परश्रीरदर स्थिर । धीरधीरजरः शूर वरसारद्धिरक्षर ॥ ८९ ॥
वीरेति-इष्टपादेन चतुर्णा मध्ये र वर्णान्तरितेन मुरजबन्धो निरूपयितव्यः ।
वीरं शूरं । अथवा विरूपा इरा गतिर्यस्यासौ वीरः । अथवा व्या इच्छाया ईरा यस्यासौ वीर: तं वीरम् । मा अस्मदः इबन्तस्य रूपम् । रक्ष पालय । रक्षां क्षेमं राति ददाति रक्षारः तस्य सम्बोधनं हे रक्षार अभयद । परा श्रेष्ठाश्रीलक्ष्मीर्यस्यासौ परश्रीः त्वमिति सम्बन्धः । अदर अभय । स्थिर अचल | धीरधीः गम्भीरबुद्धिः अगाधधिषण इत्यर्थः । अजरः जरामरणरहितः । शूर वीर । वरा श्रेष्ठा सारा अनश्वरी ऋद्धि: विभूतियस्थासौ वरसार्द्धिः । अक्षर क्षयरहित । एतदुक्तं भवति-हे रक्षार परश्नीस्त्वं अदर धीरधीस्त्वं स्थिर अजरस्त्वं शूर वरसारद्धिस्त्वं अक्षर वीर मा रक्ष ॥ ८९ ॥
हे अरनाथ ! आप प्राणीमात्रका कल्याण करनेवाले हैं, समवसरणादि उत्कृष्ट लक्ष्मीसे सुशोभित हैं, सदा निर्भय हैं, अचल हैं, अगाध बुद्धिके धारक हैं, जरामरणरहित हैं, क्षय रहित हैं, वीर हैं, तथा अविनाशीक और उत्कृष्ट अनन्त चतुष्टय
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