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स्याद्वादग्रन्थमाला।
हैं । निश्चय व्यवहारादिक नयोंसे आपने यह सम्पूर्ण जगत जीतलिया है । सौधर्मादिक अनेक इन्द्र आपको नमस्कार करते हैं। हे अजेय ! हे महापूज्य मेरे जन्म मरणादिक दुःखोंको दूर करदीजिये ॥ ९५ ॥
अनुलोमप्रतिलोमश्लोकः हतभीः स्वय मेध्याशु शं ते दातः श्रिया तनु । नुतया श्रित दान्तेशशुद्ध्यामेय स्वभीत ह ॥१६॥
हतेति-गतप्रत्यागतैकश्लोक इत्यर्थः । हतभी: विनष्टभयः त्वं । स्वयः शोभनः अयो यस्यासौ स्वय: तस्य सम्बोधनं स्वय । मेध्य पूत । आशु शीघ्रम् । शं सुखम् । ते तव । दातः दानशीलः । श्रिया लक्ष्म्या । तनु कुरु देहि वितर विस्तारय इति पर्याया: । नुतया पूजितया । श्रित सेव्य । दान्तेश मुनीश । शुद्ध्या केवलज्ञानेन । अमेय अपरिमेय । सुष्टु अभोसः स्वभीत: तस्य सम्बोधनं स्वभीत अनन्तवीर्य । ह झि सशकः । समुदायार्थ:-हे नमे यत: त्वं हतभीः स्वय मेध्य दातः श्रिया नुतया श्रित: दान्तेश शुद्ध्यामेय स्वभीत ते तव यत् शं सुखं तत् तनु कुरु देहि ह स्फुटम् ।। ९६ ॥
हे नमिनाथ ! आप निर्भय हो, महापुण्यवान् हो, पवित्र हो, मुनियोंके भी स्वामी हो । हे दानशील ! आपका केवलज्ञान अनन्त है, बल भी अनन्त है । अतिशय उत्कृष्ट लक्ष्मी भी आपकी सेवा करती है । हे देव ! आपमें जो अनंत सुख है वह मुझे भी शीघू दीजिये ।। ९६ ।।
इति नमिनाथस्तुतिः ।
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