Book Title: Jin Shatakam Satikam
Author(s): Lalaram Jain
Publisher: Syadwad Ratnakar Karyalay

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Page 101
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्याद्वादग्रन्थमाला। महत् । वर्य प्रधान । वामेश शोभनेश । यमेश व्रतस्वामिन् उद्यत्सतानुत उद्योगवता पण्डितजनेन नुत स्तुत । एवं सम्बन्धः कर्तव्यः हे नेमिनाथ सद्यशः अमेय गुरो वर्य वामेश यमेश उद्यत्सतानुत आर्यवरस्तं गुरु शमेव तनुतात् ।। ९८ ॥ हे नेमिनाथ ! आपकी यह सुन्दर कीर्ति संसारभरमें व्यात है । आपकी कान्ति भी सर्वोत्कृष्ट है । आप श्रेष्ठोंमें भी उत्तम श्रेष्ठ हैं । वृतियोंके नायक हैं । हे वर्य यह सब स्वामित्व आप को ही शोभायमान होता है । वास्तवमें आप अल्पज्ञानियोंके अगोचर हैं । बड़े बड़े पंडितजन भी आपको नमस्कार करते हैं । हे देव! वह मोक्षरूप सर्वोत्कृष्ट सुख मुझे भी दीजिये ९८ ___ इति नेमिनाथस्तुतिः । जयतस्तव पार्श्वस्य श्रीमहर्तुः पदद्दयम् । क्षयं दुस्तरपापस्य क्षमं कर्तुं ददज्जयम् ॥९९॥ जयेति--जयतः जयं कुर्वतः । तव ते । पार्श्वस्य त्रयोविंशतितीर्यकरस्य । श्रीमत् लक्ष्मीमत् । भर्तुः भट्टारकस्य स्वामिनः । पदद्वयं पदयुगलम् । क्षयं विनाशम् । दुस्तरपापस्य अतिगहनपापस्य । क्षम समर्थम् । कर्तुं विधातुम् । ददजयं विधदद्विजयम् । समुदायार्थ:-जयतस्तव पार्श्वस्य भर्तुः पदद्वयं भीमत् ददत् जयं दुस्तरपापस्य क्षय कर्तुं क्षमम् । उत्सरलोकेन सम्बन्धः ॥ ९९ ॥ हे प्रभो ! हे पार्श्वनाथ आप मोहादिक सम्पूर्ण अंतरंग शत्रुभोंको जीतनेवाले हो, सबके स्वामी हो । हे देव ! आपके चरणकमल अतिशय शोभायमान हैं । सर्वत्र विजय देनेवाले For Private And Personal Use Only

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