Book Title: Jin Shatakam Satikam
Author(s): Lalaram Jain
Publisher: Syadwad Ratnakar Karyalay

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Page 95
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ९२ स्याद्वादग्रन्थमाला | | पावनेति - पावन पवित्र । गौश्च तेजश्च गोतेजसी, न जिते गोतेजसी वाणीज्ञाने यस्यासावजितगातेजाः तस्य संबोधनं हे अजितगोतेजः । वर श्रेष्ठ । नानाव्रत नानानुष्ठान । छद्मस्थावस्थायामाचरणकथनमेतत् । अक्ष अक्षय । नानाभूतानि आश्चर्याणि ऋद्धयः प्रातिहार्याणि वा यस्वासौ नानाश्वर्यः, तस्य सम्बोधनं हे नानाश्चर्य । सुष्ठु वीतं विनष्टं आगः पाप अपराधो यस्यासौ सुवीतागाः तस्य सम्बोधनं हे सुवीतागः । जिन जिनेन्द्र । आर्य स्वामिन् । मुनिसुव्रत विंशतितमतीर्थकर । अतिक्रान्तेन क्रियापदेन स्य इत्यनेन सह सम्बन्धः । एतदुक्तं भवति-हे पावन अजित गोतेजः वर नानावत अक्षते नानाश्चर्य सुवताग : जिन आर्य मुनिसुव्रत नः अस्माकं ग्लानं एनश्च स्य विनाशय ॥ ९२ ॥ 1 हे भगवन् ! आप परम पवित्र हैं । आपकी दिव्यध्वनि तथा आपका यह केवलज्ञान अजेय है । इन्हें कोई जीत नहीं सकता ! आप सर्वोत्कृष्ट हैं । छद्मस्थ अवस्थामें आपने अनेक घोर तपश्चरण किये हैं । आप अक्षय हैं, अष्ट प्रातिहार्यादि अनेक ऋद्धियोंके स्वामी हैं, अत्यन्त निष्पाप हैं, जिनेन्द्र हैं । भो मुनिसुव्रत ! हे स्वामिन् ! मेरी भी यह संसार सम्बन्धी ग्लानि और पाप दूर कर दीजिये ।। ९२ ।। इति मुनिसुव्रतस्तुतिः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गतप्रत्यागतपादयमकाक्षरद्वयविरचित्तसन्निवेशविशेष समुद्गतानुलोमप्रतिलोमश्लोकयुगलश्लोक | नमान नमामेनमानमाननमानमा । मनामोनु नुमोनामनमनोमम नो मन ॥ ९३ ॥ For Private And Personal Use Only

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