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जिनशतक 1
૮૩
हे कुंथुनाथ भगवन् ! आप सब जीवोंको आश्रय लेनेयोग्य हैं । इस संसार में जो जीव आपको नमस्कार करता है वह चाह अति निकृष्ट हो तथापि आपको नमस्कार करने मात्र से ही वह महाप्रभु अर्थात् सबका स्वामी हो जाता है । अतएव ऐसा कौनसा मूर्ख है जो आपको नमस्कार न करे अथवा ऐसा कौनसा बुद्धिमान् है जो आपको नमस्कार न करे । अर्थात् सब लोग आपको नमस्कार करते ही हैं ॥ ८२ ॥
गतप्रत्यागतार्द्धभागः ।
नतयात विदामीश शमी दावितयातन । रजसामंत सन् देव वंदेसंतमसाजर ॥ ८३ ॥
नवेति-— गतप्रत्यागतार्द्ध इत्यर्थः । नतैः प्रणतैः यातः गम्यः नतयातः तस्य सम्बोधनं हे नतयात । विदां ज्ञानिनां ईश स्वामिन् । शमी उपशान्त: । दावितं उपतापितं यातनं दुःखं येनासौ दावितयातनः तस्य सम्बोधनं हे दावितयातन । रजसां पापानां अन्त विनाशक । सन् भवन् । देव परमात्मन् । त्वामहमित्यध्याहार्यः सामर्थ्यलब्धो वा । वंदे स्तौमि । न विद्यते संतमसं अज्ञानं यस्यासौ असंतमसः तस्य सम्बोधनं हे असंतमस । अजर जातिजरामृतिरहित । किमुक्तं भवति - हे कुंथुस्वामिन् नतयात विदामोश दावितयातन रजसामंत देव असंतमस अजर शमी शान्तः सन् त्वां वन्देहमिति सम्बन्धः ||८३ ||
हे कुंथुनाथ ! आपको वही जान सकता है जो आपको नमस्कार करता रहता है, आप ज्ञानियोंके भी ईश्वर हैं, सदा शान्तरूप हैं, दुःखों को दूर करने वाले और पापोंको नाश करने
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