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जिनशतक ।
हे सर्वज्ञ ! वीतराग ! सबका हित करने वाले श्रेयां सनाथ भगवन् ! आप सबके प्रधान आश्रय हो । यह समस्त जगत आपके चरण कमलोंसे सुन्दर लावण्य लेनेकेलिये ही आपको नमस्कार करता है अथवा ये भव्यजन आपको पाकर ही निर्भय होजाते हैं । तथा अतिशय हर्षित होकर रोमांचित होजाते हैं । अतएव हे प्रभो ! मेरी भी रक्षा कीजिये ॥ ४६॥
अपराग स मा श्रेयन्ननामयामितोभियम् । विदार्यसहितावार्य समुत्सन्नजवाजितः ॥४७॥
अपरागेति-परागः संपरायः । न विद्यते परागो यस्यासावपराग: तस्य संबोधनं हे अपराग । स त्वं । मा अस्मान् । हे श्रेयन् एकादशतीथंकर । आमयः व्याधिः, न विद्यते आमयो यस्यासावनामयः तं अनामय, मा इति सम्वन्धः । इत: इत: प्रभृति । अभियं अभयम् । विद् ज्ञानम्, आय्याः साधवः; तैः सहितः युक्तः विदार्यसहितः तस्त्र सम्शेधनं ह विदार्यसहित । अब रक्ष । आर्य पूज्य । समुत्सन्नजव । आजितः संग्रागात् कलहात् प्रणयसंग्रामाद्वा । किमुक्तं भवति–स एवं विशिष्टः त्वं हे श्रेय इतःप्रभृति अनामयं अभियं मा रक्ष आनित:
समुत्सन्नजब अपराग || ४७ ।। । हे भगवन् ! श्रेयांसनाथ ! आप वीतराग हैं। सर्वज्ञ हैं।
अनेक मुनिजन सदा आपकी सेवामें उपस्थित रहते हैं । आप * सबके पूज्य हैं । आपका वेग रागद्वेषके घोर संग्रामसे बहुत
दूर है अर्थात् आप सदा रागद्वेषरहित हैं । हे प्रभो ! मैं आपके दर्शन करने मात्रसे ही निर्भय होगया हूं। मेरी अनेक व्याधियां जाती रही हैं । हे देव ! अब मेरी रक्षा कीजिये ॥ ४७ ॥
इति श्रेयःस्तुतिः ।
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