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जिनशतक ।
है परन्तु उतने ही स्थानमें भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क, कल्पवासी मनुष्य, तिर्यच आदि तीनोंलोकोंके जीव स्वच्छंदता पूर्वक बैठ सकते हैं । और जो जीव आपके समीप आकर आपका आश्रय लेते हैं वे अवश्य ही आपकी ऐसी उत्कृष्ट लक्ष्मीसे सुशोभित होते हैं । अर्थात् यह आपका अपरिमित माहात्म्य है कि आपके साढ़ेचार योजनके ही समवसरणमें तीनों लोकोंके जीव आश्रय पा लेते हैं । और जो जीव आपके समवसरणका आश्रय लेते हैं वे अवश्य ही आपके सहश पूज्य हो जाते हैं ।। ७० ॥
मुरजः । परान् पातुस्तवाधीशो बुधदेव भियोषिताः। दूराद्धातुमिवानीशो निधयोवज्ञयोज्झिताः॥७॥
परेति-परान् पातुः अन्यान् रक्षकस्य । तव ते । अधीश: स्वामिनः । बुधानां पण्डितानां देव: परमात्मा बुधदेवः तस्य सम्बोधनं हे बुधदेव सत्यपरमात्मन् । भिया भयेन । उषिताः स्थिताः 'वस् निवासे इत्यस्य धोः क्तान्तस्य कृतजित्वस्य रूपम् ' । दुरात् दूरेण हातुमिव त्यक्तुमिव । अनीश: असमर्थाः निधयः निधानानि । अवशयोज्झिताः अनादरेण त्यक्ताः । अस्य एवं सम्बन्धः कर्त्तव्य:-हे देवदेव परान् पातुः तवाधीशः त्वया निधयोऽवज्ञया उज्झिताः भिया दूरेण उषिताः वा हातुमिव अनीशाः ॥ ७१।।।
हे भगवन् ! आप पंडितोंके भी देव अर्थात् परमात्मा हैं भव्य जीवोंके रक्षक और सबके स्वामी हैं । हे प्रभो ! आपने नौ निधि और चौदह रत्न बड़े तिरस्कारसे अर्थात् तुच्छ
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