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स्थाद्वादग्रन्थमाला ।
पृथिवी पर बिचरते हैं इतना ही नहीं किन्तु इस संसारमें जो जो परस्पर विरुद्ध पदार्थ हैं वे सब केवल आपके ही माहात्म्य से इकट्ठे होकर विचरते हैं और इनमें से कितने ही जीव आणिमा महिमा आदि दिव्य द्धियोंसे विभूषित अर्थात् देव इन्द्र आदि हो जाते हैं । हे देव ! यह केवल आपका ही माहात्म्य है अन्य किसीका ऐसा माहात्म्य नहीं हो सकता ॥ ७३ ॥
मुरजः। तावदास्व त्वमारूढो भूरिभूतिपरंपरः । केवलं स्वयमारूढो हरि ति निरम्बरः ॥ ७४ ॥
तावदिति-तावत् तदः वत्वं तस्य कृतात्वस्य रूपम् । आस्व तिष्ठ। आस उपवेशने इत्यस्य धोर्लोडन्तस्य प्रयोगः । तावदास्वेति किमुक्तं भवति तिष्ठ तावत् । स्वं युष्मदो रूपम् । आरूढः प्रख्यातः । भरिभूतिपरंपर: भूरयश्च ता भूतयश्च भूरिभूतयः तासां परंपरा यस्यासौ भरिभूतिपरंपरः बहुविभूतिनिवास इत्यर्थः । केवलं किन्तु इत्यर्थः । स्वयमारूढः स्वेनाध्यासित: । हरिः सिंहः । भाति शोभते । निरम्बरः वस्त्ररहितः । किमुक्तं भवति- हे भट्टारक त्वं तावदास्व भूरिभूतिपरंपर: निरम्बर इति कृत्वा यस्त्वारूढः ख्यात: स: किन्तु त्वयारूढः हरिरपि भाति त्वं पुनः शोभसे किमत्र चित्रम् ॥ ७४ ॥ ___ हे प्रभो ! यद्यपि आप अंतरंग बहिरंग आदि अनेक विभूतियोंसे विभूपित हो तथापि निरम्बर अर्थात् वस्त्ररहित कहलाते हो । इसलिये आपको सुशोभित कहना अनुचित जान पड़ता है। किन्तु यह बात सवर्था निश्चित है कि जिस सिंहासनपर आप विराजमान होते हो वह सिंहासन अतिशय सुशोभित हो
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