Book Title: Jin Shatakam Satikam
Author(s): Lalaram Jain
Publisher: Syadwad Ratnakar Karyalay

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Page 62
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनशतक। एतदुक्तं भवति- हे धर्म अवाध दमेनई मत धर्मप्र गोधन अनागः शर्मतमप्रद वं मे अशं वाधस्व ॥ ५६ ॥ ___ हे धर्मनाथ भगवन् ! आप बाधारहित हो, उत्तम क्षमा के होनेसे वृद्ध गिने जाते हो, सबके पूज्य हो, उत्तमक्षमादिक दशप्रकारके धर्मको धारण करनेवाले हो, निर्दोष हो, मोक्ष रूप अतिशय उत्तम सुखको देनेवाले और दिव्यध्वनिरूफ वाणीके स्वामी हो । हे प्रभो मेरा दुःख दूर कर दीजिये ॥५६॥ गतप्रत्यागतैकश्लोकः । नतपाल महाराज गीत्यानुत ममाक्षर । रक्ष मामतनुत्यागी जराहा मलपातन ॥ ५७।। नतेति-क्रमपाठे यान्यक्षराणि विपरीत पाटेपि तान्येव । नतान् प्रणतान् पालयति रक्षतीति नतपालः तस्य सम्बोधनं हे नतपाल । महान्तो राजानो यस्य स महाराज: 'टः सौन्तः' तस्य सम्बोधन महाराज । अथवा नतपाला महाराजा यस्यासौ नतपालमहाराजः तस्य सम्बोधनं नतपालमहराज । मम गीत्यानुत अस्मत्स्तवनेन पूजित । अक्षर अनश्व र । रक्ष पालय । मां अस्मदः इवन्तस्य रूपम् । अतनुत्यागी अनल्पदाता । जराहा वृद्धत्वहीनः । उपलक्षणमेतत् जातिजरामरणहीन इत्यर्थः । मलं पापं अज्ञानं पातयति नाशयतीति मलपातनः कर्तरि युट् बहुलवचनात् । तस्य सम्बोधनं हे मलथातन । एतदुक्तं भवति-हे धर्म नतपाल महाराज गीत्यानुत मम अक्षर जराहा मलषातन रक्ष मां अतनुत्यागी यतस्त्वम् ॥ ५५ ॥ १ जैनेन्द्रव्याफरणस्य । For Private And Personal Use Only

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