Book Title: Jin Shatakam Satikam
Author(s): Lalaram Jain
Publisher: Syadwad Ratnakar Karyalay

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Page 71
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ स्याद्वादग्रन्थमाला । गुणपर्वतम् । के किमो रूपम् ! क्रमेण न्यायेन परिपाट्या । ईदृशा ईदृग्भू तेन । रूढा: प्रख्याता: । स्तुवन्तो वन्द्यमाना: । गुरुं महान्तम् । अक्षरं अनश्वरम् । किमुक्तं भवति-चक्रपाणेर्भवत: गुणमन्दरं ईदृशा क्रमेण मुरजबन्धैश्चक्रवृत्तैः स्तुवन्त: रूढा: के नाम दिशामूढाः अपि तु न भवन्त्येव । किं विशिष्टं गुणमन्दरं गुरुं अक्षरम् ॥ ६७ ॥ _हे प्रभो ! आप चक्रवर्ती हैं । जो पुरुष मेरे सदृश मुरजबंध चक्रवृत्त आदि चित्रवद्ध स्तोत्रोंसे आपके अविनश्वर और महान् गुणरूपी मेरुपर्वतकी स्तुति करते हैं वे प्रसिद्धपुरुष क्या कभी दिशाभूल हो सकते हैं । अर्थात् कभी नहीं । अभिप्राय यह है कि जो प्रतिदिन मेरुपर्वतको देखता है उसे कभी दिग्भूम नहीं होसकता । क्योंकि यह बात सब कोई जानते हैं कि मेरुपर्वत सबओरसे उत्तरदिशामें ही रहता है । इसीप्रकार जो पुरुष भगवानके गुण स्मरण करते हैं वे कभी अज्ञानी नहीं रह सकते । वे केवलज्ञान पाकर अवश्य ही मुक्त होते हैं ॥ ६ ॥ मुरजः। त्रिलोकीमन्वशास्संगं हित्वा गामपि दीक्षितः । त्वं लोभमप्यशान्त्यंगं जित्वा श्रीमद्विदीशितः॥१८॥ त्रिलोकीति-त्रिलोकी त्रयाणां लोकानां समाहारः त्रिलोकी “ रादि तिडीविधिः" तां त्रिलोकीम् । अन्वशाः अनुशास्तिस्म अनुशासितवान् । संगं परिग्रहम् । हित्वा त्यक्त्वा । गामपि पृथिवीमपि । दीक्षित: प्रव्रजितः । त्वं युष्मदोरूपम् । लोभमपि सङ्गगतचित्तमपि तृष्णामपि । अशान्त्यङ्गं अनु पशमनिमित्तम् । शान्ते: अङ्गं कारणं शान्त्यङ्गं न शान्त्यङ्गं अशान्त्य For Private And Personal Use Only

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