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जिनशतक ।
आगश्च जन्म च न, यत: ततो भवानेव नेतेति सम्बन्धः । अविवेको नास्तीति वचनेन सांख्यसौगतयोगानां निराकरणं कृतम् । अन्यैर्विशेषणैरन्ये निराकृताः ॥ ४४ ॥
हे श्रेयांसनाथ सर्वज्ञ ! आपमें कभी अविवेक नहीं था । शरीर में कोई अलंकार भी नहीं था । तथा आपत्ति, चित्तकी पीड़ा, शरीरका विन्यास, माया, पाप, क्रोध, अपराध, जन्म मरण आदि कभी नहीं थे । हे प्रभो ! इसकारण ही आप सबके स्वामी हो
इस श्लोकमें श्रीश्रेयांसनाथभगवानके जो विशेषण दिये हैं उन सबसे अन्यमतोंका निराकरण होता है । यथा-सांख्य बौद्ध नैयायिक लोग ईश्वरको ज्ञानस्वरूप नहीं मानते, किन्तु ज्ञानका अधिकरण मानते हैं। इसका निराकरण " आप कभी अविवेकी नहीं थे " इस विशेषणसे होता है । इसीप्रकार अन्य विशेषणोंसे भी और और मतोंका निराकरण समझ लेना चाहिये ।। ४४ ॥
मुरजः। आलोक्य चारु लावण्यं पदाल्लातुमिवोर्जितम् । त्रिलोकी चाखिला पुण्यं मुदा दातुंध्रुवोदितम्।४५।
आलोक्येति-आलोक्य दृष्ट्वा । चारु शोभनम् । लावण्य सारूप्यं सौभाग्यम् । पदात् पादात् । लातुं गृहीतुम् । इव औपम्ये । ऊर्जितं महत् । त्रयाणां लोकानां समाहारः त्रिलोकी । च अत्यर्थे ।
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