Book Title: Jin Shatakam Satikam
Author(s): Lalaram Jain
Publisher: Syadwad Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनशतक । मुरजः। धाम त्विषां तिरोधानविकलो विमलोक्षयः । त्वमदोषाकरोस्तोनः सकलो विपुलोदयः॥३२॥ धामेति-चन्द्रप्रभोऽभात् अत्रापि सम्बन्धनीयः । धाम अवस्थानम् । त्विषां तेजसाम् । तिरोधानेन व्यवधानेन विकल: विरहितः अन्यत्राविकलः तिरोधानविकल: । विमलो निर्मल:, चन्द्र: पुन: समल: । न क्षीयत इत्यक्षयः, अन्यः सक्षयः । त्वं भट्टारकः । अदोषाणां गुणानां आकर: निवास:, अन्यत्र दोषाया: रात्रेः आकरः दोषाकरः । अस्ताः क्षिताः जनाः असर्वज्ञतारकाः येनासावस्तोनः । सकल: सम्पूर्णः, अन्योऽसम्पूर्णः । विपुलः महान् उदयः उद्गमो यस्यासौ विपुलोदयः । अन्य: पुन: अविपुलोदयः । किमुक्तं भवति-त्वं चन्द्रप्रभः एवंविध गुणविशिष्टः सन् पृथिवीमण्डले अभात् शोभित इति सम्बन्धः ॥ ३२ ॥ हे प्रभो ! आप चन्द्रमाके समान ही तेजस्वी हो परन्तु इतना भेद है कि चन्द्रमाके उदय होनेमें तो अंतर रहता है आप व्यवधानरहित निरन्तर उदयरूप रहते हो । चन्द्रमा कलंकी है आप निष्कलंक हो । चन्द्रमाका क्षय होता है आप अक्षय हो । चन्द्रमा दोषाकर अर्थात् रात्रिका उत्पादक है आप गुणाकर अर्थात् अनेक गुणोंके निधि हो । चन्द्रमाके उदय होने से तारे अस्त नहीं होते आपके उदय होनेसे असर्वज्ञरूप तारे सब छिप जाते हैं । चन्द्रमा खण्डशः उदय होता है आप पूर्णरूपसे उदय होते हो। चन्द्रमाका उदय बहुत थोड़े प्रदेशमें है आपका महान् उदय सर्वत्र है। हे देव ! हे चन्द्रप्रभ ! आप सर्वगुणविशिष्ट सदा शोभायमान रहते हो ॥ ३२ ।। For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132