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जिनशतक ।
३३
अमेयः अपरिमेयः । रुचिरे दीप्ते । भाननां प्रभाणां मण्डलं संघात: भानुमण्डलं तस्मिन् भानुमंडले सति । चन्द्रेण सह श्लष: । कानिचित्साधम्र्येण विशेषणानि कानिचिद्वैधर्येण । एतदुक्तं भवति--चन्द्रप्रभस्त्वं कुमण्डले विचित्रे अभात् रुचिरे भानुमंडले सति । अन्यानि चन्द्रप्रभभट्टारकस्यैव विशेषणानि । दयः अजेय: रुन्द्रशोभ: अक्षय: अमेय: चन्द्रप्रभचन्द्रयोः समानत्वं, किन्तु एतावान् विशेषः । स जेयो राहुणा अयमजेयः । स सक्षयः अयमक्षयः । स मेयः अयममेयः । स पृथ्वीमण्डले अयं पुनस्त्रैलोक्ये अलोके च । अयं व्यक्तिरेक: ।। ३० ॥
हे भगवन् ! श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! सूर्यमंडलके देदीप्यमान होते हुये भी आप चन्द्रमाके समान इस विचित्र पृथिवीमंडल पर सुशोभित होते हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि चन्द्रमा केवल पृथिवीमंडलमें सुशोभित होता है आप तीनों लोकोंमें सुशोभित होते हैं । चन्द्रमा सूर्यमंडलके रहते हुये सुशोभित नहीं रह सकता आप सूर्यमंडलके रहते हुये भी सुशोभित रहते हो चन्द्रमाको राहु जीत सकता है आप सर्वथा अजेय हैं । चन्द्रमाका क्षय होता है आप अक्षय हैं। चन्द्रमा प्रमाणगोचर है आप प्रमाणके अगोचर अप्रमेय हैं । हे भगवन् आपकी शोभा अति विशाल है आप सबके रक्षक और क्रोधादिक अन्तरंग शत्रुओंको जीतनेवाले हैं ॥ ३०॥
मुरजः । प्रकाशयन् खमुद्भूतस्त्वमुद्धांक कलालयः।
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