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जिनशतक ।
संभावना की जाय तो भी वह अत्यन्त प्रशसनीय ठहरता है। हे सर्वज्ञ ! आप अत्यन्त शोभायमान हैं अजेय हैं, जरारहित हैं, सदा कल्याणरूप हैं सबके इष्टस्वरूप मोक्षके स्वामी हैं । हे प्रभो !
आप उपर्युक्त अनेक गुणविशिष्ट हो, मुझे भी वह सुख दीजिये जिससे फिर कभी दुःख न हो ॥ ३७ ॥ ३८ ॥
मुरजः । शोकक्षयकृदव्याधे पुष्पदन्त स्ववत्पते । लोकत्रयमिदं बोधे गोपदं तव वर्त्तते ॥३९॥
शोकेति-शोकक्षयकृत् शोकस्य क्षयः शोकक्षयः तं करोतीति शोकक्षयकृत् । अव्याधे न विद्यते व्याधिर्यस्यासावव्याधिः तस्य सम्बोधनं हे अव्याधे । पुष्पदन्त नवमतीर्थकर । स्ववत्यते आत्मवतां पते । लोकानां त्रयम् । इदं प्रत्यक्षवचनम् । बोधे केवलज्ञाने। गोपद गोष्पदम् अत्र सुपो नुन् भवति । तव ते । वर्तते प्रवर्तते । ज्ञानस्य माहात्म्य प्रदर्शितम् । गुणव्यावर्णनं हि स्तव: । किमुक्तं भवति हे पुष्पदन्त परमेश्वर तव बोधे लोकत्रयं गोष्पदं वर्तते यत: ततो भवानेव परमात्मा ॥ ३९ ॥ ___ हे भगवन् पुष्पदन्त ! आप शोकसंतापदि सम्पूर्ण दोषों को नाश करनेवाले हैं । आधिव्याधिरहित हैं । हे प्रभो ! आपके केवलज्ञानमें ये सम्पूर्ण तीनों लोक गोपदके समान जान पड़ते हैं। भावार्थ-जैसे गोपद ( कीचड़ या धूलमें चिन्हित हुआ गायका खुर) छोटा और प्रत्यक्ष प्रतिभासित होता है उसी प्रकार आपके ज्ञानमें भी ये तीनों लोक अत्यन्त
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