Book Title: Jin Shatakam Satikam
Author(s): Lalaram Jain
Publisher: Syadwad Ratnakar Karyalay

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Page 22
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya : जिनशतक । श्लोकयमकः। सदक्षराजराजित प्रभो दयस्व वईनः । सतां तमो हरन् जयन् महो दयापराजितः ॥१६॥ सदेति-सत् शोभनम् । अक्षर अनश्वर । न विद्यते जरा वृद्धलं यस्यासावजरः तस्य सम्बोधन हे अजर । अजित द्वितीयतीर्थकरस्य नाम । प्रभो स्वामिन् । दयस्व-दय दाने इत्यस्य घोः लोडन्तस्य रूपम् । वर्दनः नन्दन: त्वं यतः । सतां भव्यलोकानाम् । तमः अज्ञानम् । हरन् नाशयन् । जयन् जयं कुर्वन् इत्यर्थः । महः तेजः केवलज्ञानम्, दयस्व इत्यनेन सम्बन्धः । दयापर याप्रधान । न जित: अजितः । किमुक्तं भवति-अन्य सर्वे जिताः त्वमजितः अत: हे अजित भट्टारक महः सद्भानं दयस्व ॥ १६ ॥ हे अजितदेव ! काम क्रोधादिक अन्तरंग शत्रुओंने समस्त संसारको जीतलिया परन्तु वे आपको न जीतसके इसलिये ही यह संसार आपको 'अजितदेव' करके पुकारता है । हे प्रभो ! आप विनाशरहित हैं, जरारहित हैं, भव्यजीवोंके अज्ञान रूपी अंधकारको नाश करनेवाले हैं। वर्द्धमान, दयालु और विजयी हैं । हे अजितदेव जिसके प्रसादसे आप ऐसे हुये हो वह सम्यग्ज्ञान मुझे भी दीजिये ॥ १६ ॥ सदक्षराजराजित प्रभोदय स्ववर्द्धनः। स तान्तमोह रंजयन् महोदयापराजितः ॥१७॥ For Private And Personal Use Only

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