________________
F
जैनेन्द्र का कहानियाँ [छठा भाग ]
साधु तब लौट चला।
लेकिन शायद क्रोध का पेट अभी पूरा न भरा न था । साधु के मुड़ते ही पत्नी को छोड़, दारोगा उधर बढ़े और पकड़ कर लातों और घूँसों से साधु की खूब मरम्मत करने लगे। उसके कपड़े फट गये । जगह-जगह नील उभर आये । नाक से लहू या चला ।
अन्त में साधुओं के सम्बन्ध में कुछ अत्यन्त उपयोगी उद्गारों की उद्घोषणा के साथ और विभिन्न भाँति की कर-पद- प्रहार- पूजा के साथ साधु को द्वार - बाहर कर दिया गया ।
२ :
उसने फिर भीख नहीं ली। सीधा अपने स्थान पर आ गया । शहर के बाहर एक देवालय था । वहाँ कुत्र था और निकट ही एक तिदरी-सी बनी थी । न जाने कहाँ से आकर आज उसने बसेरा डाला था ।
हाथ-मुँह धोकर, लहू से अपने को स्वच्छ किया । कपड़े पर जहाँ लहू के दाग़ थे, उन्हें धो डाला और अपने संक्षिप्त सामान में से सुई-धागा निकाल फटे वस्त्रों को सी लिया । ये आवश्यक कार्य करने के बाद वह अपने कुशासन पर आ बैठा ।
यह आज क्या हो गया ? क्यों हो गया ? क्यों उस व्यक्ति को क्रोध की प्रेरणा प्राप्त हुई ? कहाँ से प्राप्त हुई ? मुझे देखकर क्यों उसमें क्रोध ही उकसा ? मुझे देखकर क्यों नहीं उसमें कोई कोमल भावनाएँ जागीं ?... मेरे व्यक्तित्व ने उसमें क्रोध सुलगाया, क्रोध भड़काया ?... आह, मुझ में से शान्ति की स्फूर्ति उसे क्यों नहीं मिली ?... कैसे हो कि मुझ से प्रत्येक शान्ति ही पाये, आनन्द ही अनुभव करे ? अपने में से क्या काट फेकूँ कि ओछे भाव मुझे कारण बना कर दूसरों में जागृत ही न हो सकें ? मैं कब ऐसा बनूँगा ? क्या ऐसा बन सकूँगा ?... आह, अपने इस होन