Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 27
________________ निश्चित समय पर राजकार्य को देखे, याचकों की बात सुने, अधिकारियों से प्रतिवेदन ले, नागरिकों से मिले सथा नर्तकी का नृत्य आदि भी देखें । उसके राज्य में प्रजा को क्षय, लोभ तथा अप्रोति के कारणों का सामना न करना पड़े तथा कोई परस्त्री पर दृष्टि न डाले।यदि दमन को आवश्यकता हो तो केवल शत्रुओं का दमन करे। . शत्रुओं पर विजय प्राप्ति के लिए सबसे पहिले अपने को संयमित करना चाहिए तत्पश्चान् अपनी दिनाको व्यवस्थित कर मनि अति जना माविमासान करना चाहिए । उचित स्थान पर किए गए प्रयत्न सफलता के कारण होते हैं, इसके विपरीत अग्थान पर किए गए प्रयत्न विनाश का ही कारण होते हैं। केवल पुरुषार्थ के आधार पर ही विजय की कामना नहीं करना चाहिए, किन्तु पुरूषार्थ होने पर भी देश, समय, शत्रुबल तथा आत्मबल का विवेक और आक्रमण के पहिले समस्त बातों को परोक्षा भी विचारणीय है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि शरीर बल का कुछ भी महत्त्व न हो । देश, काल तथा चातुरी में पूर्ण श्रृगाल क्या कर सकता है? यदि उसके शरीर में शक्ति ही न हो । इसके अतिरिक्त विवेक की भी आवश्यकता है । देश, काल और बल की अनुकूलता से पुष्ट सिंह विवेक विमुख होकर अपने शरीर को क्षतविक्षत कर डालता है। जो अपने अथवा शत्रु के हिताहित बिवेक, आत्मबल, सेना, प्रजा, अधिकारी तथा साधन सामग्री का सब दृष्टियों से विचार नहीं करता है । वह आक्रम्य के ऊपर आक्रमण करते ही विनष्ट हो जाता है । उनका जन्म प्रशंसनीय है जो कायंकृत अथवा जन्मजात स्वयं आए हुए मित्रों को स्वीकार करता है तथा व्यवहार के कारण बने अथवा कुल क्रमागत शत्रु का दूर से हो प्रतीकार करता है। । विजिगीषु की सहायता करने में समर्थ तथा असमर्थ पक्षों का विचारका और उन्हें आश्वासन तथा सहायता देकर अथवा लेकर, अनुगामी बनाकर सब प्रकार से सन्नद्ध हो सेना लेकर शत्र पर आक्रमाग करना चाहिये । इसके पूर्व शत्रु को स्वामी आदि प्रवृतियाँ, पुण्य-पाप, नीति निपुणता अथवा अनीतिमत्ता और कार्य शक्ति का भी विचार कर लेना चाहिए । अस्थिर नीतिवाला, पापनिष्ठ, अवसर का लाभ उठाने में असमर्थ, शिथिल शत्रुमागं के समान प्रमाणिक पुरूषों के चले जाने पर तथा वापिस न आने के कारण जिस किसी के द्वारा तिरस्करणीय हो जाता है । नीचे की ओर देखने वाले शत्रु पर कब यकायक आक्रमण नहीं किया जा सकता है ? अर्थात् सदैव किया जा सकता है । जिस प्रकार विविध वीथियों युक्त धूलिमय (सूखा) और दूर-दूर तक चला गया तथा विश्वस्त लोगों से आया गया मार्ग जिस किसी के जाने योग्य हो जाता है, उसी प्रकार उपर्युक्त लक्षणों से युक्त शत्रु पर भी आसानी से आक्रमण किया जा सकता है। शत्रु द्वारा वश में करणी मन्त्री आदि यदि फूटते है तो शत्रु भेदनीति द्वारा नहीं जीता जा सकता है और यदि अरातिमाह्य मन्त्री आदि में फूट पड़ गयी तो शत्रु को पराजित हो समझिये, फिर भेद के लिए प्रयत्न से क्या लाभ ? क्योंकि गाय फटे खुरों से ही चलती है पर क्या अभिन्न खरों से घोड़ा नहीं दौड़ता है ? कितनी अपनी शक्ति है और कितनी दूसरों से मिलेगी, इसका विचार करना चाहिए तथा अनुकूल देश और समय की उपेक्षा करके नहीं रहना चाहिए, क्योंकि शय्या से उठकर ही दौड़ते हुओं को सफलता मिलती है । स्वयं बलशाली तथा शत्रु का (आन्वीक्षिकी आदि) विद्याओं को दृष्टि से तथा सम्पत्ति आदि साधनों की अपेक्षा तथा पराक्रम के आधार से विचार किया जाना चाहिए क्योंकि घिसने और घिसे जाने वाली लकड़ियों के बीच से उत्पन्न स्वाभाविक आग के समानसंग्राम

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