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9. कठिनाई से दर्शन होना ।
10. पुत्र का कुपुत्र होना ।
11. सहायक मित्र तथा दुर्ग आदि आधारों से रहित होना । 12. चंचल, निर्दयी, असहनशील और द्वेषी होना । 13. बुरे लोगों से घिरा होना ! 15. बिना क्रम के प्रत्येक कार्य में आगे आना ।
14. विषय खोटे मार्ग में चलना ।
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गुणभद्र के अनुसार दोषी या अन्यायी राजा सबको सन्तान देने वाला, कठोर टैक्स लगाने वाला, क्रूर, अनवस्थित ( कभी सन्तुष्ट और कभी असन्तुष्ट रहने वाला) तथा पृथ्वीमण्डल को नष्ट करने वाला होता है । इसके फलस्वरूप वह अनेक प्रकार के दण्डों को पाता है । राजा की अहंकार छोड़ देना चाहिए, अहंकारी लोग क्या नहीं करते। अशुभ कर्म के उदय से कोई राजा द्यूत जैसे व्यसनों में आसक्त हो जाता है । मन्त्रियों और कुटुम्बियों के रोकने पर भी वह उनसे प्रेरित हुए के समान उन व्यसनों में आसक्त रहता है, फलस्वरूप अपना देश, धन, बल, रानी सब कुछ हार जाता है" । क्रोध से उत्पन्न होने वाले मद्य, मांस और शिकार इन तीन व्यसनों में तथा काम से उत्पन्न होने वाले जुआ, चोरी वेश्या और परस्त्री सेवन इन चार व्यसनों में जुआ खेलने के समान नीच व्यसन नहीं है । सत्य जैसे महान् गुण को जुआ खेलने वाला सबसे पहले हारता हैं, पीछे लज्जा, अभिमान, कुल, सुख, सज्जनता, बन्धुवर्ग, धर्म, द्रव्य, क्षेत्र, घर, यश, , माता-पिता, बाल बच्चे, स्त्रिय और स्वयं अपने आपको हारता नष्ट करता है। जुआ खेलने वाला मनुष्य अत्यासक्ति के कारण न स्नान करता है, न भोजन करता है, न सोता है और इन आवश्यक कार्यों का रोध हो जाने से रोगी हो जाता हैं। जुआ खेलने से धन प्राप्त होता है, यह बात भी नहीं है, जुआरी व्यक्ति व्यर्थ ही क्लेश उठाता है, अनेक दोष उत्पन्न करने वाले पाप का संचय करता है, निन्द कार्य कर बैठता है, सबका शत्रु बन जाता है, दूसरे लोगों की याचना करने लगता है और धन के लिए नहीं करने योग्य कार्यों में प्रवृत्ति करने लगता है । बन्धुजन उसे छोड़ देते हैं एवं राजा की ओर से उसे अनेक कष्ट प्राप्त होते हैं । राजा सुकेतु इसका दृष्टान्त है, वह जुआ के द्वारा अपना राज्य ही हरा बैठा था इसलिए उभय लोक का कल्याण चाहने वाला व्यक्ति जुआ को से छोड़ दे ।
दूर
आचार्य सोमदेव ने राजा के निम्नलिखित दोष बतलाए हैं.
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1. मूर्खता संसार में राजा का न होना अच्छा है, किन्तु मूर्ख राजा का होना अच्छा नहीं
40, क्योंकि संसार में अज्ञान को छोड़कर दूसरा कोई पशु नहीं है। मूर्ख और हठी (दुर्विदग्ध ) राजा के अभिप्राय को नीले रंग में रंगे हुए वस्त्र के समान कोई बदलने में समर्थ नहीं हो सकता है । जब मनुष्य द्रव्य प्रकृति (राज्य पद के योग्य राजनैतिक ज्ञान और आचार सम्पत्ति) आदि सद्गुण को त्यागकर अद्रव्यप्रकृति (मूर्खता, अनाचार, कायरता आदि दोष) को प्राप्त हो जाता है, तब वह पागल हाथी की तरह राज्यपद के योग्य नहीं रहता है। शिव के कण्ठ में लगा विद विष ही है उसी प्रकार उच्चपद पर आसीन मूर्ख मूर्ख ही है" । मूर्ख मनुष्य जो कार्य करते हैं, उसमें उन्हें बहुत क्लेश उठाना पड़ता है और फल थोड़ा मिलता है । मूर्ख मनुष्य का शिष्ट पुरुषों द्वारा सेवन नहीं किया जाता है ।