Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 152
________________ 142 एक ऐसे ही समय का जिनसेन ने बड़ा ही मनोरम चित्र खींचा है। उस समय रासभा में कितने ही ब्राह्मण मनुष्यों के कानों को सुख देने वाले सोमवेद का गायन करते थे और कितने ही वेदों का स्पष्ट एवं मधुर उच्चारण करते थे। कितने ही ऊंकार ध्वनि के साथ यजुर्वेद का पाठ करते थे और कितने ही पद तथा क्रम से युक्त अनेक मंत्रों की आवृत्ति करते थे। कितने ही ह्रस्व दीर्घ और प्लुतभेदों को लिये हुए उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों के स्वरूप का उच्चारण करते थे 1 जो ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद का प्रारम्भ का जोर-जोर से पाठ करते थे तथा दिशाओं को बहिरा बनाते थे ऐसे ब्राह्मणों से सभा का आंगन खचाखच भर जाता था. वादी प्रतिवादी शिष्यचारपूर्वक अपने सहायकों के साथ योग्य स्थानों पर बैठ जाते थे । बड़े-बड़े कमण्डलु, जटा और बल्कलों को धारण करने वाले तापस वहाँ विद्यमान होते ते। ऐसे अपूर्व समय पर जो पण्डित सबा में बैठे होते, उनमें से कितने ही सभारूपी सागर में क्षोभ उत्पन्न होने पर उसे रोकने के लिए सेतुबन्ध के समान होते थे, कितने ही पक्षपात न हो इसके लिए तुलादण्ड के समान होते थे, कितने ही कुमार्ग मैं चलने वाले वादी रूपी हाथियों को वश में करने के लिए उत्तम अंकुश के समान होते थे और कितने ही श्रेष्ठ तत्तव की खोज करने के लिए कसौटी के पत्थर के समान होते थे। ये सब विद्वान जब यथायोग्य आसनों पर बैठ जाते सब ज्ञान और अवस्था में वृद्ध लोग राजा से वादी और प्रतिवादी के विवाद की चर्चा कर न्यायमार्ग के देता होने के कारण राजा से न्याय की मांग करते थे। राजा अध्यक्षता में सब विद्वानों के आगे वादी और प्रतिवादी जय और पराजय को प्राप्त करते थे। सबसे पहले पूर्वपक्ष रखा जाता था?" । पूर्वपक्षी जब अपना पक्ष रखकर चुप हो जाता तो उत्तरपक्षी उसका निराकरण करने के लिए अपने पक्ष की पुष्टि में युक्तियाँ उपस्थित करता था । सभा में बैठे हुए परीक्षक जब सही बात समझ लेते थे तो वे सिर हिला हिलाकर तथा अपनीअपनी अंगुलियाँ चटखाकर सही पक्ष रखने वाले को धन्यवाद देते थे । पश्चात् शिष्टजन राजा से निर्णय की प्रार्थना करते थे, तब राजा निर्णय देता था । सामान्यतः राजा ठीक निर्णय देता था । यदि सब कुछ समझते हुए भी राजा अनुचित निर्णय देता था तो सब लोग उसकी निन्दा करते ते और उसे दैवी प्रकोप का भी सामना करना पड़ता था। राजा वसु का नारद पर्वत संवाद में अनुचित निर्णय देने के कारण यही हाल हुआ। तत्ववादी, गम्भीर एवं वादियों की परास्त करने वाले को लोग ब्रह्मरथ पर सवार करते थे और उसका सम्मान कर यथास्थान चले जाते थे । राजसभा आदिपुराण के पंचम पर्व से राजसभा की एक झलक प्राप्त होती है, तदनुसार राजसभा में राजा सिंहासन पर बैठता था। अनेक वारांगनायें उस पर चँवर ढोरतो था । मंत्री. सेनापति, पुरोहित सेठ तथा अन्य अधिकारी राजा को घेरकर बैठते थे। राजा किसी के साथ हंसकर, किसी के साथ सम्भाषण कर, किसी को सम्मान देकर, किसी को स्थान देकर, किसी को दान देकर, किसी का सम्मान कर और किसी को आदरसहित देखकर सन्तुष्ट करता था । गन्धर्वादि (संगीतादि) कलाओं का जानकार राजा विद्वान् पुरुषों को गोष्ठी का बार - बार अनुभव करता जाता श्री तथा श्रोताओं के समक्ष कलाविद पुरुष परस्पर में जो स्पर्धा करते थे, उसे भी देखते जाते थे। इसी बीच राजा सामन्तों द्वारा भेजे हुए दूतों को द्वारपालों के हाथ बुलाकर बार-बार सत्कार करता था तथा अन्य देश के राजाओं के प्रतिष्ठित पुरुषों (महत्तरों) द्वारा लाई गई भेंट को देखकर उनका भी सम्मान करता था । इस प्रकार राजसभा में राजा मन्त्रिवर्ग के साथ्स स्वेच्छानुसार बैठता था* | -

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