Book Title: Jain Rajnaitik Chintan Dhara
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Arunkumar Shastri

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Page 181
________________ 171 ' तत्कालीन गोधन तथा धान्यसम्पदा को देखकर लोग आनन्दित हो उठते थे । ईख पैलने में यन्त्रों तथा नृत्य करते हुए मयूरों की मधुर ध्वनि के कारण राजा भी गोकुल निवास की प्रशंसा करते थे। दूतों की भूमिका- दूतों की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। राजा लोग अपना अभिप्राय व्यक्त कर दूतों को दूसरे राजाओं के पास भेजा करते थे। कुशाग्रबुद्धि दूत दूसरे राजा की सभा में जाकर अपने स्वामी का अभिणय निपुणतापूर्वक निवेदन करता था, इसीलिए दूत को राजाओं का मुख कहा जाता था। __ चार-प्रचार- गुप्तचर लोकरक्षा के मुख्य अंग थे । गुप्तचरों के द्वारा शत्रु के सब हाल को सब तरह जानकर राजा अपने पराए को जानने की चेष्टा करता था । गुप्तचरों द्वारा ही शत्रु के आगमन का समाचार प्राप्त होता था । राजा शत्रुओं के मृत्यों को गुप्तचरों के द्वारा दूना वेतन दिलाकर वश में करता था और जाली पत्र भेजकर उसका सामन्तों से बिगाड़ करा देता था। शक्तिपय - प्रभूशक्ति मन्त्रशक्ति और उत्साहशक्ति से युक्त राजा सबको जीतने की शक्ति रखता है । प्रभुशक्ति की सम्पदा से पृथ्वी का पालन करके ही राजा का पृथ्वीपाल नाम सार्थक होता है। चाङगुण्य - सन्धि, विप्रह, यान, आसन, संत्रय और द्वैधीभाव ये छह गुण कहे गए है। समझदार लोग शत्रुओं के बल की थाह लेकर इन छह बातों में से किसी कत्तयं का निश्चय करते है । ये छहों गुण लक्ष्मी के स्नेहीं हैं। शत्रुताओं का प्रतीकार - शत्रु अपने मनोरथ की सिद्धिपर्यन्त प्रसन्न करने योग्य होते हैं। अपने शत्रु के कार्यों की प्रबलसा और उसके विचार को जानकर प्रतीकार करना चाहिए । इस प्रकार उत्तम उपायों से प्रसिद्ध मनुष्य कार्य को पूर्ण करने में रुकावट रहित होते हैं। रणविधान - युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व शत्रु राजाओं के यहाँ दूत भेजा जाता था! दूत स्वामी का अभिप्राय निवेदन कर लौर आता था । यदि शत्रु राजा दूत द्वारा कही गई बातों की अवेहलना करता था या उनको टुकराता था तो युद्ध प्रारम्भ हो जाता था | युद्ध करने से पूर्व बड़ों की सलाह ली जाती थी । इसके बाद मन्त्रियों से मन्त्रणा की जाती थी। सोच विचार कर ही कार्य किया जाता था, क्योंकि बिना विचारे कार्य करने वालों का कार्य निष्फल हो जाता है । जीत हार के विषय में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों को महत्ता दी जाती थी।केवल पुरुषार्थ ही कार्यसिद्धि का कारण नहीं हैं, क्योंकि निरन्तर कार्य करने वाले पुरुषार्थ किसान का वर्षा के बिना क्या सिद्ध हो सकता है? अर्थात कुछ भी नहीं। एक ही समान पुरुषार्थ करने वाले और एक ही समान आदर से पढ़ने वाले छात्रों में से कुछ तो सफल हो जाते हैं और कुछ कर्मों की विवशता से सफल नहीं हो पाते हैं। अच्छी सेना के लिए आवश्यक था कि उस सेना में मलिन भूखा, दीन, प्यासा, कुत्सित वस्त्र धारी और चिन्तातुर व्यक्ति दिखाई न पड़े । सैनिकों के उत्साहवर्धन हेतु स्त्रियां भी साथ में जाया करती थीं । युद्ध प्रारम्भ करने से पूर्व मध्य में और अन्त में बाजे बजाए जाते थे। सबसे पहले यन्त्र आदि के द्वारा कोट को अत्यन्त दुर्गम कर दिया जाता था तथा अनेक प्रकार को विधाओं द्वारा नगर को गहवरों एवं पाशों से युक्त कर दिया जाता था | सच्चे शूरवीर युद्ध में प्राण त्याग करना अच्छा समझते थे पर शत्रु के लिए नमस्कार करना अच्छा नहीं समझते थे।

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