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के साथ स्वेच्छानुसार बैठता था मन्त्रियों में से जो सम्यगदृष्टि, व्रतो, गुण और शील से शोपित, मन, वचन, काय से सरल,गुरभक्त, शास्त्रों का वेत्ता, अत्यन्त बुद्धिमान उत्कर्ष श्रावकों (गृहस्थों) के योग्य गुणों से शोभायमान तथा महात्मा होता था, राजा उसकी प्रशंसा कर उसके वचनों को स्वीकार करता था।
सैन्यशक्ति- राज्य की सुरक्षा वगैरह का सारा दायित्व सेना पर था अतः अधिकाधिक संख्या में सैनिक रखने पड़ते थे। एक स्थान पर अक्षौहिणी प्रमाण सेना का उल्लेख हुआ है। अक्षौहिणी सेना के अन्तर्गत इक्कीस हजार साइमन्ता हाली पर सपा नौ ३: तो सौ पन्यास गदानि और पैंसठ हजार छह सौ चौदह घोड़े आते थे।
युद्धस्थल में योद्धाओं की जागरूकता अनुपम होती थी। योद्धा बाप्प को बरसाते थे, आण घोड़े को गिरा देता था, घोड़ा घुड़सवार को गिरा देता था। इस प्रकार योद्धा लोग एक दूसरे को गिराने की परम्परा से खुब साधकर बाण छोड़ते थे । अश्वेसना अपनी वेगशीलता के लिए प्रख्यात रही है । इसकी वेगशीलता का धनञ्जय ने बहुत ही सुन्दर चित्र खोंचा है- 'पूरी की पूरी चंचल वायुसेना का वेग वायु के समान था, चित्त वेग मय था, शरीर चित्तमय था तथा चित्त और शरीर एकमेक हो जाने के कारण वह अश्वारोहियों की प्रेरणा से जलराशि को पार कर गई थी 1 इसी प्रकार गज सेना और रथसेना की कार्यकलापों तथा उनकी शक्तियों का वर्णन यत्र तत्र प्राप्त होता है।
मित्रशक्ति - इस लोक और परलोक में मित्र के समान हित करने वाला कोई दूसरा नहीं है न मित्र से बढ़कर कोई बन्धु है । जो बात गुरु अथवा पाता पिता से नहीं कही जाती है ऐसी गुप्त से गुप्त बात भी मित्र से कही जाती है । मित्र अपने प्राणों की परवाह न करता हुआ कठिन से कठिन कार्य सिद्ध कर देता है। उत्तरपुराण में मणिकेतु इसका दृष्टान्त है, अत: सबको ऐसा मित्र बनाना चाहिए।
नागरिक और ग्राम्य शक्ति - किसी भी राज्य या राजा की मुख्य शक्ति का केन्द्र उसके नगर या ग्रामनिवासी होते हैं। ये जितने अधिक सम्पन्न और गुणों से भरपूर होगें, राष्ट्र उतनी ही समृद्ध और गुणवान होगा । चन्द्रप्रभचरित में इनके जीवन का चित्रण किया गया है तदनुसार पुरनिवासी बुद्धि में तीक्ष्ण होते थे, किन्तु उनके वचन तीक्ष्ण (कठोर) नहीं होते थे । द्विजिहवता (चुगलखोरी), चिन्ता और दरिद्रता का यहाँ (नागरिकों में) नाम ही नहीं होता था |मद, उपसर्ग, (रोग, बाधा) तथा निपात वहीं दिखाई नहीं पड़ता था | परलोक सम्बन्धी कार्यों में लगे हुए नागरिक धर्म के लिए धनोपार्जन और वंश चलाने के लिए कामभोग करते थे। उन्हें धन कमाने
और कामभोग करने का व्यसन नहीं होता था ।सभी लोग राजा की प्रसनता में अपनी प्रसन्नता मानकर महोत्सवादि मनाते थे, गणिकायं नृत्य करती थीं | नगर को शोमा मनुष्यों से, मनुष्यों की शोभाधन से. घन की शोभा भोग से और भोग की शोभा निरन्तरता से होती है। नगर की समृद्धि में अन्य लोगों की अपेक्षा वणिकों (व्यापारियों) तथा तार्किकों (विद्वानों) का अधिक योग रहता है अतःआवश्यक है कि वणिक और तार्किक दोनों ही लोकप्रसिद्ध अविरोधी और व्याभिचार रहित मान (तौल, प्रमाण) से वस्तुओं की तोलें या प्रमाणित करें।